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" ऐ जिन्दगी मेरी....

पीछवाड़े के नीम की झुकी टहनियों सी कच्चें घरों की सुन्नी पड़ी देहलियों सी सिसकती रातों में हिचकियों सी ऐ जिन्दगी मेरी, तुम कैसी हो री ? तुम हो ख्वाबों में नींद प्रियसी जैसी तुम हो रातों में गहरी चाँदनी जैसी तुम दर्द के सीने की गर्म साँस सी हो तुम सदियों से दबे गहरे राज सी हो तुम हो मौत के माथे पर जुल्फ जैसी तुम हो बँटे हुए, मेरे मुल्क जैसी ऐ जिन्दगी मेरी तुम कैसी हो री ?

एक याद किस्सा, शान्ति लाल गुप्ता जी

   एक याद किस्सा  -" डॉ.शांतीलाल गुप्ता "           - दीवाली के एक दिन पहले जयपुर से घर जाने के लिए निकला। सिंधी कैंप से पाँच रूपये की एक कटिंग चाय खरीद कर रोडवेज बस की सीट पर बैठा ही था की बस चल दी। चाय मैं कैसे छोडता। सो अपनी सीट पर बैठकर चाय पीने लगा। थोडी देर बाद आगे वाली सीट पर बैठे, हाथ में थैली थामे सज्जन ने मुझसे कहा ! " चाय पीने के बाद यह जो कप है , इसे बाहर नही फैंक कर मुझे दे देना।" मुझे बात कुछ अजीब सी लगी। सोचा यह कप इनके किस काम का , ? पर जब यही बात उन्होंने मेरी बगल में मूंगफली खाती महीला, चिप्स चबाती लडकी व जूस पिते लड़के से कही।  तो मैंने उन्हें गौर से देखा। बच्चें से मासूम चेहरे पर जिन्दगी के एक बड़े हिस्सें का अनुभव लिए वो मेरी तरफ देख कर मुस्कूरा दिए। मुझे ही नही बस में सवार हर एक मुसाफिर को उनका यह व्यवहार असामन्य ही लगा होगा कि कौन दूसरों से कचरा मांग- मांग कर इस तरह थैली में इक्कठा कर के सफर भर ढोता है और उतर कर सही जगह डाल देता है। मुझे अपना कचरा उन्हें देने में शर्म आने लगी तो मैं उठकर उनके पास जा बैठा। अपना कचरा उनकी थैली में डाल

पगडंडियां

शाम के धीमे अँधेरें में दूर से आती गाडियाँ रेंगती हुई सी लग रही थी। पी पी की आवाजों के बीच ट्रक में चलते राजा हिन्दुस्तानी के गाने  " परदेशी परदेश जाना नही" और रक्शें में बजते " हमारी गल्ली आना नही " से लग रहा था की यह सड़क उतर भारत के किसी मझले शहर की है। पता नही कौन है जो किसी को परदेश जाने से रोक रहा है? और कौन है जो किसी को गली में आने से भी मना कर रहा है?             यह सड़क शहर से ढ़ेर सारे गाँवों को जोडती है  और कई सपनों को रोज गाँव से शहर ढोने का काम भी करती है बेहरहाल बात सपने और सड़क की नही है। बात है उस पगड़ड़ी की जिसके छोर से मानव ने चलना शुरू किया था। सभ्यता के उषाकाल से ही यह मानव के द्वारा बानायी और बिगाड़ी जाती रही है। हर किसी ने अपने सफ़र का कुछ हिस्सा इन पगड़ड़ियों से गुजरते हुए काटा होगा। जंगल से शहरों तक की तरक्की करने वालों ने इन्हे लीपपोत कर चौडे राजमार्गों में तबदिल कर दिया। लेकिन जब आज भी जाता हूं उस तालाब के पास तो पाता हूं की गोर चांदनी में सियारों का एक झुंड रोज आता है उस तालाब तक । गुफ्फाओं और कंदराओं से निकलने वाली छोटी-छोटी पगडंडियां जंग

My first English poem.

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               काव्य की रचना कभी भी किसी भाषा में नही हुई। काव्य तो भावों की अभिव्यक्ति मात्र है। काव्य हमेशा वहीँ रचा जाता है जहाँ पर भाष अप्रभावी हो जाती है। अर्थात भाव ह्रदय की असीम गहराई में प्रस्फुटित होते है और जब वो अप्रस्फुटित रहे जाते है तब ही काव्य बनता है। काव्य का अर्थ चंद तुकबंद कविताएँ नही है मैं उसे परिभाषित नही कर सकता पर इतना कह सकता हूँ की वेदना और प्रेम की असीम स्थिती में निकली एक आह! भी काव्यमयी हो सकती है। बस शर्त है की उस साँस को भी उसी तरह ग्रहण किया जाए जिस तरह से उसे छोडा गया।इसीलिए कालीदास के हजारों साल बाद भी कोई दुसरा कालीदास नही हुआ। अंग्रेजी मुझे अच्छी नही आती पर लायक लिख सका हूँ। आप चाहो तो इसे कविता कह सकते हो अन्यथा कुछ तो है ही- ईश्वर गुर्जर     --  Is it love.  -- क्या यह प्यार है--                             I think that you think about me.  And you think that I think about you. Do you know that When you cry, then I also cry. When you laugh then I also laugh . I see you, everywhere. But do I see you everywhere? You know

A Billion Colour Story

Ishwar Gurjar: एक शानदार मानवीय कहानी पर बनी सतीश कौशिक की फिल्म"A Billion Colour Story"  के ट्रेलर विडियों( https://youtu.be/NviI4dNCKzk) में दिल को छू लेने वाली ये दस लाईनें आप से साझा कर रहा हूँ। ( मैंने इसके अनुवाद में कुछ बदलाव किए है जो शायद सही या गलत हो सकते है। बावजूद इसके इसमें कोई शक नही है की कविता का मौलिक रूप रचना दृष्टी व भाव दृष्टी से उत्कृष्ट है। अत: आप इसका English Part जरूर पढे )- Ishwar- "" As far back anyone can remember. The sky always been blue and the grass always green. Wood has always been brown.  The sun always been yellow . Sometimes white and often gold. Beauty is all shades of pastel. Mysteries are grey. The heart has always been pink. Rain and pain blue again. Love has always been red . But then so has violence and hatred." हिन्दी अनुवाद-: जहाँ तक कोई याद कर सकता हैं। आकाश हमेशा नीला और घास हमेशा हरे रंग की रही होगी। लकड़ी हमेशा भूरे रंग की तो सूर्य हमेशा पीला रहा होगा। कभी कभी सफेद और अक्सर सुनहरा भी, सुन्दरता हमेशा फूलो

भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव......

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आज 23 मार्च है यानि शहादत का दिवस  लेकिन मेरे नौजवान साथियों को इस दिवस से कोई ताल्लुकात ही नही।  पश्चिम की भौतिकवादी नीतियों ने हमें इतना परिवर्तित कर दिया कि हम अपने मूल संस्कारों को ही भुला बैठे हैं त्याग समर्पण और बलिदान जो हमारी संस्कृति का एक संस्कार रहा है वह वर्तमान के नौजवानों में कहीं देखने मात्र को भी नही मिलता । हम वक्त के हास्य पर खड़े हुए लोग हैं यहां हमें सोचना चाहिए ! हमने अपने नायक गलत तलाश लिए । पाँच- दस रूपये की क्रिम लगा कर घण्टे दो घण्टे तक कैमरे के सामने उछल कूद करने वाले हीरो नहीं कहलाते । असली हीरो वे होता है जो अपनी मातृभूमि के लिए अपने लोगों के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दें । 28 सितंबर सन 1907 को भगत सिंह का जन्म पाकिस्तान के लरकाना जिले मे हुआ। पिता और चाचा पहले से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में सलंग्न थे । उनको भी ऐसा ही माहौल मिला । पढ़ने में वे काफी होशियार थे । किताबें पढ़ने का तो उन्हें इतना शौक था कि ग्रेजुएशन करते करते उन्होंने हिंदी उर्दू का लगभग संपूर्ण साहित्य पढ़ डाला था। मैं आपको उनके बारे में तथ्यात्मक जानकारी नहीं बताऊंगा वह तो आप क

मैं आजाद....

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            --श्री चन्द्रशेखर आजाद-- उदास शब की घड़ियों में चंद लफ़्जात तो मेरे भी थे। मुकाबिल दौर में आजाद ख्यालात तो मेरे भी थे । वतन के हमजवां दिलों ,मुझे बताओगे क्या। वो खुली सहरों के बुलावे तो मेरे भी थे।                                     ---   ईश्वर जिक्र करता हूँ। एक ऐसे शख्स के बारे में जिनकी तमन्ना थी की मातृ-ए-वतन का ज़रा-ज़रा आजादी की खुशबू से महके और हिन्द की फिजाओं में एक आजाद हवा जहाँ साँस लेने की इजाजत नही लेनी पडती हो । मुल्क का हर बाशिंदा अपने आप को बेसहारा और लाचार महसूस ना करे बल्कि मन में स्वतंत्रता और महफ़ूजी का अहसास रखे। ये ख़्वाब उनकी आँख़ों ने तब देखा था जब हमे सपने देखने की आजादी भी नसीब नही थी। मातृ-ए-हिन्द की स्वतंत्रता के लिए नाजाने कितने ही चरागों ने अपनी रोशनी कुर्बान की जिनमे से बहुतों का तो कभी हम जिक्र ही नही कर पाये । वो खामोशी से आये और सब कुछ भारती को न्योछावर कर खामोशी में ही लिन हो गये । लेकिन उनमें से ही कुछ रोशन चराग ऐसे थे जिनकी लौ ने चिंगारी का काम किया और यही चिंगारी आगे चल कर दुनिया के महान साम्राज्य को ध्वसत करने में कामयाब

--"सुभाषचंद्र बोस-"

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सुभाषचंद्र बोस (जन्म 23-01-1897) मैं जिनके बारे में लिखने जा रहा हूँ। उनके लिए मेरी लेखनी बहुत छोटी पड जाती है । और अल्फ़ाजों से जिनकी तारीफ़ नही की जा सकती।   वतन से किस कदर मोहब्बत की जाती है । ये उन से सीखी जा सकने वाली बात है । इन्हें मोहब्बत थी अपने वतन की फ़िजाओ से , अज्जाओ से , ख़ाक से राख से हर उस शख्स से जो उनके वतन का बाशिंदा था । वो मांगने के बजाय अपने अधिकार छीन लने में विश्वास करते थे । जिनके दिलों दिमाग में बस एक ही बात थी वतन की आजादी और एक ऐसी युवा कोम जो अपने इल्म से , अपनी तालीम से वतन-ए-हिन्द को वो मुक्काम दिला सके जिसका वो सदियों से हकदार था और रहा । 23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक में जानकीनाथ बोस और प्रभावति के घर नौवीं संतान के रूप में पैदा हुए । पिता पेशे से वकिल थे । और बेटे को ICS बनाना चाहते थे। ये वो दौर था जब किसी भारतीय के लिए प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए मशक्कत करनी पडती थी । 1920 में ICS में चयन हुआ और 1921  में ये कहते हुए त्यागपत्र दे दिया कि " माँ जब गुलाम होतो मेरा फर्ज बनता है की मैं हर वो संभव प्रयास करू जो गुलामी की

मैं ओम ... (एक आवाज )

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        ओम पुरी (18 अक्टूम्बर 1950 -7 जनवरी 2016) नसीरूद्दीन शाह ने अपने परम मित्र की मौत पर कुछ यू कह कर गम जताया होगा । ""कमबख्त जिदंगी और मौत की दौड़ में भी मुझे पीछे छोड़ गया। मैंने पलक झपकाई और वह मौत के आगोश में चला गया ।"" आम आदमी के आक्रोश की आवाज ओमपुरी ने जीवन को सरलता के साथ जीया और मौत को भी उतनी ही सरलता से गले लगा लिया । जब नौकरी छोड कर किस्मत आजमाने Mumbai आये तो लोगो ने कहा इतना बदसुरत व्यक्ति अभिनेता कैसे बन सकता है । ये वो दौर था जब हम सरलता से जटिलता की ओर, हकिकत से कल्पित चमकती दूनिया की ओर, मूल संस्कृति से पाश्चात्य की धूँध की ओर तेजी से बढ रहे थे ।  प्रभावी व काबील अभिनेता की परिभाषा हम ने शक्ल और सुरत देख कर तय की ।  industry के इसी नजरियें को रोबदार आवाज और अदाकारी का अलग ही फन रखने वाले ओमपुरी ने तोडा । जिगर मुरादाबादी का चेहरा भी खुरद्दरा था लेकिन जब वो शायरी करते थे तो खुबसुरत लगने लगते थे कला  इंसान को अंदर से पाक और खुबसुरत बना देती है । कहा जाता है की अपने मुश्किल दौर में ओमपुरी ने ढाबे पर बर्तन उठाने का काम तक किया औ