पगडंडियां

शाम के धीमे अँधेरें में दूर से आती गाडियाँ रेंगती हुई सी लग रही थी।
पी पी की आवाजों के बीच ट्रक में चलते राजा हिन्दुस्तानी के गाने  " परदेशी परदेश जाना नही" और रक्शें में बजते " हमारी गल्ली आना नही " से लग रहा था की यह सड़क उतर भारत के किसी मझले शहर की है।
पता नही कौन है जो किसी को परदेश जाने से रोक रहा है? और कौन है जो किसी को गली में आने से भी मना कर रहा है?

            यह सड़क शहर से ढ़ेर सारे गाँवों को जोडती है  और कई सपनों को रोज गाँव से शहर ढोने का काम भी करती है
बेहरहाल बात सपने और सड़क की नही है। बात है उस पगड़ड़ी की जिसके छोर से मानव ने चलना शुरू किया था। सभ्यता के उषाकाल से ही यह मानव के द्वारा बानायी और बिगाड़ी जाती रही है। हर किसी ने अपने सफ़र का कुछ हिस्सा इन पगड़ड़ियों से गुजरते हुए काटा होगा।
जंगल से शहरों तक की तरक्की करने वालों ने इन्हे लीपपोत कर चौडे राजमार्गों में तबदिल कर दिया। लेकिन जब आज भी जाता हूं उस तालाब के पास तो पाता हूं की गोर चांदनी में सियारों का एक झुंड रोज आता है उस तालाब तक ।
गुफ्फाओं और कंदराओं से निकलने वाली छोटी-छोटी पगडंडियां जंगल में हो कर पार उतर जाती होगी और कुछ दूर चलती होगी नदि के किनारें-किनारें।
गोधुली में लोट कर आते मवेशियों के झुंड से उडती धूल उसी पगडंडी की होगी । खेतों की मेड के साथ चलने वाली उबड-खाबड हो चूकी है। पर पांव आज भी सरपट दौडते होंगे इस पर...
बहुत लम्बी है यह और इसकी कहानी भी

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