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रामराज्य

आशुतोष राणा की भाषा में राम भक्ति, शक्ति और वैराग्य का पुंज है। भरत जहां भावों से भरे है , उन्हें मृण्मय में भी चिन्मय दिखाई देता है; वही राम का चित्त ज्ञानी का चित्त है। वह भाव आसक्त होकर भी उनसे परे है। उन्हे चिन्मय में भी मृण्मय दिखाई देता है। इसलिए जगत और संबंधों की निस्सारता से विलग वनवास का चुनाव राम ही कर सकते हैं। कोई और नही।   राम की कहानी को जाने कितनी चेतनाओं ने अपने-अपने विमर्शों से कहा है। वाल्मीकि के पौराणिक राम, तुलसी के मध्यकालिन राम और निराला की "राम की शक्ति पूजा" के आधूनिक पुरषोत्तम नवीन राम ; आशुतोष राणा के यहां तक पहुंचकर प्रगतिशील वैरागी  चेतना के राम बन जाते है। राम की कहानी और कथानक को जितनी बार  और जितने तरीकों से गाया और बखाना गया है वैसा दूसरा उदहारण दुनिया में शायद हो। क्या यही " संभवामि युगे-यूगे नहीं है" "रामराज्य"  में आशुतोष राणा ने कई मौलिक उद्भावनाए की है। कैकेयी और शूर्पणखा जैसे कलंकित माने जाने वाले चरित्रों को अपराध से मुक्त करने का प्रयास किया। वनवास को कैकेयी की महत्वकांक्षा न मानकर राम का स्वयं में इच्छित अपेक्षा मान

Winter is coming

सावन की उमड़ती- घुमड़ती घटाए अब नही, न भादो की बौछार है। बिजली की कड़कड़ाहट भी अब सुनाई नही देती, न काली घटाए ही चढ़-चढ़ कर आती है। आसोज की अंतिम रात है। शरद पूर्णिमा। वर्षा ऋतु को यहां समाप्त समझो। भूले-भटके, लोटते बादळे बरसते जाते है। मानो विदा ले रहे हो कि अब एक वर्ष की गई।   बरखा का वो जोर अब नही। और आसोज ( अश्विन) महीने की पूर्णिमा ( शरद पूर्णिमा) तो शरद ऋतु की शुरुआत ही है।  बरस-बरस कर आसमान रीत गया है। मानो सारा मतमैलापन पानी संग बरसा हो।  साफ, नीला, ओस से भींगा आकाश। धरती की नमी से आबद जान पड़ता है। जैसे गीली धरती की उच्छावास (सांस) से भाप युक्त हो गया हो।  शरद का मौसम सबसे सुहाना और स्वच्छकारी है। पठारो और मैदानों में भी पहाड़ों जैसी सुहानी जलवायु का लुत्फ । दिन सामान्य और राते ठंडी होने लगती है।  सुबह की ओस से भींगी घास और संध्या का खिला लालिमा युक्त नीलाम आकाश। नदी-नाले, ताल-तलैया डबडबाई आंखों से भरे है। हवा का रुख बदलने लगता है। मंद हल्की हवा , नहाई धुली लगती है।  आसोज में पकी फसले , काती ( कार्तिक) में कटने को तैयार होती है। दिवाली तक खेत खलियान का टैम होता है। जंगली बैर ब

सफर

जीवन एक यात्रा है। मुक्तलिफ तजुर्बों , एहसासो और मुलाकातों का ऐसा सफर जिसके अनगिनत रंग है। शहर बदलते है। ठोर-ठिकाने बदलते है। हमयात्री बदलते है। हर बदलाव के साथ हम भी बदलते है। जहनी तौर पर भी और जज़्बाती तौर पर भी। नए संकल्प पुरानी पराजयों को प्रतिस्थापित कर देते है।  नई उम्मीदें , अधूरी आशाएं और आधे- अधूरे मन से हम एक नए परिदृश्य का हिस्सा बनते है। बस कैनवास के रंग बदलते है। कुछ रंग हम जोड़ते है। कुछ नए दोस्त, थोड़े बहुत अजनबी और अधिकतर अनायास ही जुड़ जाते है। स्याही कम करते है। कुछ सफेदी बढ़ाते है। चटक, सतरंगी, रंगो के कुछ छींटे और इस तरह जबतक कोई मुक्कमल तस्वीर साकार होती है तब तक हम चल देते है।  एक नए कैनवास की तरफ।  जैसे हम ठीक वह कह नही पाते है जो कहना चाहते है। या जो हमे कहना चाहिए होता है;  जैसे हम ठीक वह रच भी नही पाते है ; जो रचना चाहते है। वैसे ही हम  ठीक उस तरह   जी भी कहां पाते है जैसा जीना हम चाहते थे। लेकिन फिर भी जब भी हम किसी के कैनवास (जिंदगी ) में खुद को अनायास ही  उपस्थित पाते है तो कोशिश करते है की कुछ जिंदगी की कालिमा को  कम करे, कुछ सतरंगी रंगो के छींटे छिड़क दे