रामराज्य

आशुतोष राणा की भाषा में राम भक्ति, शक्ति और वैराग्य का पुंज है। भरत जहां भावों से भरे है , उन्हें मृण्मय में भी चिन्मय दिखाई देता है; वही राम का चित्त ज्ञानी का चित्त है। वह भाव आसक्त होकर भी उनसे परे है। उन्हे चिन्मय में भी मृण्मय दिखाई देता है। इसलिए जगत और संबंधों की निस्सारता से विलग वनवास का चुनाव राम ही कर सकते हैं। कोई और नही।  

राम की कहानी को जाने कितनी चेतनाओं ने अपने-अपने विमर्शों से कहा है। वाल्मीकि के पौराणिक राम, तुलसी के मध्यकालिन राम और निराला की "राम की शक्ति पूजा" के आधूनिक पुरषोत्तम नवीन राम ; आशुतोष राणा के यहां तक पहुंचकर प्रगतिशील वैरागी  चेतना के राम बन जाते है। राम की कहानी और कथानक को जितनी बार  और जितने तरीकों से गाया और बखाना गया है वैसा दूसरा उदहारण दुनिया में शायद हो। क्या यही "संभवामि युगे-यूगे नहीं है"

"रामराज्य" में आशुतोष राणा ने कई मौलिक उद्भावनाए की है। कैकेयी और शूर्पणखा जैसे कलंकित माने जाने वाले चरित्रों को अपराध से मुक्त करने का प्रयास किया। वनवास को कैकेयी की महत्वकांक्षा न मानकर राम का स्वयं में इच्छित अपेक्षा माना। शूर्पणखा को दुराचारिणी न बताकर राम को नर से नारायण बनाने का हेतु माना है। ऐसे ही बहुत कुछ। लेकिन इस किताब का कथानक नहीं, भाषा और चिंतन इसे पठनीय और सराहनीय बनाता है।

आशुतोष राणा की हरकत भरी भाषा और सूत्र कथन शैली विस्मित करने वाली है। एक ही भाव को शब्दों की बदलती आवृति के साथ अनेक तरह से कहने का कौशल उनकी भाषा सिद्धी का प्रमाण है। 
जैसे:- यह गद्यांश
"रावण और तुम्हारे राम में अंतर है मां! वह कुश-आसन  से सिंहासन की ओर बढ़ना चाहता था। और मैं सिंहासन से कुश-आसान की ओर बढ़ना चाहता हूं।  रावण की साधना का लक्ष्य सत्ता थी और राम की साधना का लक्ष्य समाज है। रावण प्राप्ति के भाव से भरा हुआ था और राम परिष्कार की प्रेरणा से प्रेरित। राम नमन की शक्ति में विश्वास करता है, वहीं रावण दमन की नीति को प्रश्रय देता है।"

आशुतोष राणा को पढ़ना और सुनना दोनो ही भाषा और चेतना के परिष्कर में सहायक है। अभिनेता से इतर उनका लेखक और वक्ता का व्यक्तित्व भी उतना ही आकर्षक और संभावनाओं से भरा है। 



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