कुछ यूं ही
अंतर्मन के द्वंद्व कहाँ नही होते ? हर मन उलझनों से शोषित है। हर चेतना द्वैत से अभिशिप्त। किसी को वो नही चाहिये जो है । सबको उसी की चाह है जो नही है। तुलनात्मकता जीवन के सुख- दुःख का पैमाना बन गयी। भीतर मन मे द्वंद्व नैराश्य को खींचते है। बाहर दुनिया जिजीविषा को। कितना भी मन कठोर करलो। किसी को आशा देने पड़ती है। तो किसी से उम्मीद लगाए बिना जीवन नही गुजरता। मन के अपने विरोधाभाष है। दुनिया हारा हुआ मानकर दयादृष्टि से ने देखे। दया की दृष्टि में परोपकार नही होता। वो आत्मसम्मान को मार देती है। संवेदना में प्यार नही हो तो सम्मान भी नही होगा। कमजोरियां द्वंद्व की जननी है। आत्मविश्वास की संहारक। इसलिए कोई भी कमजोर नही दिखना चाहता। हर कोई किसी न किसी से सबल है। यही सुख है। यही दुख का मूल भी है। निरपेक्ष जीवन सम्भव नही। मन के द्वंद्व ही आप मे जिजीविषा का संचार करते है तो यही आपको झकड भी लेते है। इसलिए हर तरह की कमजोरी से लड़ो। यही जिने का प्राकृतिक तरीका है। यही योग्यतम का चयन सिद्धात है। विवेकानंद ने कमजोरियों को सबसे बड़ा शत्रु माना। ऐसे शत्रु से लड़ना ही जीवन बताया। चिड़ियों की नस्ले दाने के लि