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जिंदगी...!

रॉस की मॉम- "असल में आप रहते कहाँ है मिस्टर डॉन्सन" जेक डॉन्सन- "वैसे तो फ़िलहाल मेरा पता है IRNS टाइटैनिक और इसके बाद ईश्वर चाहे जहाँ ले जाए! " और आप पैसे कहाँ से जुटाते हैं ! "मैं जगह-जगह काम करता हूं मैम जैसे कांगो जहाज पर। वगैराह। पतों की बाजी में नसीब ने मेरा साथ दिया और मुझे टाइटैनिक की टिकिट मिली! अच्छा नसीब था " और क्या तुम्हें यह बंजारों जैसी जिंदगी अच्छी लगती है। " जी मैम अच्छी लगती है ! देखिए मेरे पास वो सब है जो मुझे चाहिए। जी मे सांस है और मुझ में काबिलियत भी। पता नही कल मेरी जिंदगी में क्या होगा ? या फिर कौंन मुझे मिलेगा ? या मैं कहाँ रहुंगा? एक रात मैंने पूल के नीचे गुजरी तो दूसरी दुनिया के सबसे शानदार जहाज पर आप लोगों के साथ सेपियंस पी रहा हूं ( थोड़ा और देना )। जिंदगी एक तोफा है इसे गवांना नही चाहिए। पता नही काल नसीब कौनसी चाल चल जाए। जिंदगी का एक-एक पल जीना चाहिए। हर दिन के लिये जीओ 😊👍👌💐 ( टाइटैनिक मूवी का हीरो )

पूर्व चलने के बटोही...। हरिवंश राय बच्चन

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी, हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी, अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या, पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी, यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है, खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले। पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले। है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे, है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे, किस जगह यात्रा ख़तम हो जाएगी, यह भी अनिश्चित, है अनिश्चित कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा, आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले। पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले। कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में, देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर, अपने समय में, और तू कर यत्न भी तो, मिल नहीं सकती सफलता, ये उदय होते लिए कुछ ध्येय नयनों के निलय में, किन्तु जग के पंथ पर यदि, स्वप्न दो तो सत्य दो सौ, स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले। पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले। स्वप्न आता स्वर्ग का, द

आषाढ़ का एक दिन

मधुल , धूसर , काले - मटमैले मेघों से बनती अनिश्चित अजीबोगरीब आकृतियों और सपाट क्षैतिज तक जाकर बरसते बादलों की गड़गड़ाहट के बीच ' मोहन राकेश   ' का नाटक - "आषाढ का एक दिन"   पढ़ना ;  यकायक  पहली बारिश में भींग जाने जैसे अहसासों से भर देता है ग्राम प्रान्त की पर्वत शिखाओं, तलहटियों  , हरण्यशावको और मल्लिका को छोड़कर ' कालीदास '  का उज्जयिनी चले जाना। जमीन से उखड़ जाने के द्वंद्व। अंबिका की चिंताएं। प्रियंगुमंजरी का मल्लिका से संवाद।  वक्त की स्पर्द्धाओं और किस्मत की दुष्वारियों से लोटती परछाइयां और अंत में लोट आने पर भी सब खो देना। मोहन राकेश ने अस्तित्ववाद के विसंगतीबोध को पूरे कथानक में पिरो दिया है। किसी को भी चुनने का अर्थ है किसी एक को न चुन पाने का अफ़सोस। एक के होने और दूसरे के खो जाने की विसंगति , अधूरेपन की पीड़ा पूरे नाटक में आद्यंत व्याप्त है। विखंडित व्यक्तित्व कालीदास कि दूसरी त्रासदी है। मन ग्रामप्रान्त के रमणीय वातावरण और मल्लिका के साथ रमता है किंतु राजसी वैभव व सांसारिक सफलताएं अपनी और खिंचती है। यही असंगति जीवन को अकाट्य तर्क बना देती है। जो न जीय