आषाढ़ का एक दिन

मधुल , धूसर , काले - मटमैले मेघों से बनती अनिश्चित अजीबोगरीब आकृतियों और सपाट क्षैतिज तक जाकर बरसते बादलों की गड़गड़ाहट के बीच 'मोहन राकेश  ' का नाटक - "आषाढ का एक दिन"  पढ़ना ;  यकायक  पहली बारिश में भींग जाने जैसे अहसासों से भर देता है

ग्राम प्रान्त की पर्वत शिखाओं, तलहटियों  , हरण्यशावको और मल्लिका को छोड़कर 'कालीदास '  का उज्जयिनी चले जाना। जमीन से उखड़ जाने के द्वंद्व। अंबिका की चिंताएं। प्रियंगुमंजरी का मल्लिका से संवाद।  वक्त की स्पर्द्धाओं और किस्मत की दुष्वारियों से लोटती परछाइयां और अंत में लोट आने पर भी सब खो देना।

मोहन राकेश ने अस्तित्ववाद के विसंगतीबोध
को पूरे कथानक में पिरो दिया है। किसी को भी चुनने का अर्थ है किसी एक को न चुन पाने का अफ़सोस। एक के होने और दूसरे के खो जाने की विसंगति , अधूरेपन की पीड़ा पूरे नाटक में आद्यंत व्याप्त है। विखंडित व्यक्तित्व कालीदास कि दूसरी त्रासदी है। मन ग्रामप्रान्त के रमणीय वातावरण और मल्लिका के साथ रमता है किंतु राजसी वैभव व सांसारिक सफलताएं अपनी और खिंचती है। यही असंगति जीवन को अकाट्य तर्क बना देती है। जो न जीया जाता है न त्यागा।

इस नाटक की भाषा काव्यमय है। संवाद इतने भाव आसक्त है कि पाठक लेखक का द्वैत खत्म हो जाता है। वातावरण इतना सघन है कि भावक बंध जाता है। बरसाती हवाओं और द्वार ताकती आँखों की नमी महसूस होने लगती है । मन डबडबा जाता है। 

हिंदी रंगमंच के इतिहास में मोहन राकेश के नाटकों ने मील के पत्थर सरिकी भूमिका निभाई है। लेकिन यहां रंगमंचीय मापदंडों पर नाटक कि चर्चा करना उद्देश्य नहीं है। बात मोहन राकेश द्वारा अस्तित्ववादी यथार्थ व आधुनिक भावबोध जैसे मुहावरों का अपनी रचनाओं में बारम्बार प्रयोग करने को लेकर है। जैसा कि अरस्तू ने कहा है कि त्रासदी मे भी एक सौंदर्य होता है ट्रैजडी और दुखांत का अपना आकर्षण है। वैसे ही मोहन राकेश की रचनाओं का सौंदर्य अधूरेपन और जीवन कि विसंगति में है। हर पात्र विखंडित व्यक्तित्व से झुझता हुआ दिखता है।  इसीलिए  विलोम एक असफल कालिदास है और कालिदास एक सफल विलोम। पर है दोनो जड़ों से उखड़े हुए। वो कोई नहीं है जो वो होना चाहता है। यही द्वंद्व "महलो के राजहंस" नाटक में भी दिखता है तो यही असंगति "आधे अधूरे" मे भी। 






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