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सेपियंस 1

" 20 लाख वर्ष पहले पूर्वी अफ्रीका की पदयात्रा करते हुए शायद आप का सामना मानव चरित्रों की चिर-परिचित भूमिकाओं से हो सकता था;- शिशुओं को सीने से लगाए चिंतित माताएं और मिट्टी में खेलते हुए निश्चित बच्चों के समूह,  समाज के आदेशों के खिलाफ लाल-पीले होते तुनकमिजाज नौजवान और थके हुए बुजुर्ग जो सिर्फ इतना चाहते थे कि उन्हें चैन से रहने दिया जाए। स्थानीय सुंदरी को प्रभावित करने की कोशिश करते छाती ठोकते मर्द और सयानी बूढ़ी कुलमाताएं जो यह सब कुछ पहले ही देख चुकी थी। आदिम मनुष्य प्रेम करते थे।, खेलते थे। , करीबी दोस्ती कायम करते थे और हैसियत तथा सत्ता के लिए होड़ करते थे। लेकिन यही सब चिंपांजी, लंगूर और हाथी भी किया करते थे उनमें अलग से कुछ खास नहीं था। किसी को भी स्वंय मनुष्य को भी यह जरा भी आभास नहीं था कि एक दिन उनके वंशज चंद्रमा पर चलेंगे, परमाणु का विखंडन करेंगे , जेनेटिक कोड की थाह लेंगे और इतिहास की पुस्तके लिखेंगे। प्रागैतिहासिक मनुष्यों के बारे में जानने लायक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह मामूली प्राणी थे जिनका अपने पर्यावरण पर गुरिल्लाओं, जुगनुओं और जैली मछली से ज्यादा प्रभाव नह

मैं तुमको विश्वास दु।

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मैं तुमको विश्वास दुं  मैं तुमको विश्वास दुं , तुम मुझको विश्वास दो शंकाओं के सागर हम हर जायेंगे। मरुधरा को मिलाकर स्वर्ग बनायेंगे। प्रेम बिना यह जीवन तो अनजाना है। सब अपने है कौन यहां बेगाना है। हर पल सबका अर्थवान हो जायेगा। बस थोड़ा से मन में प्रेम जगाना है। इस जीवन को साज दो , मौन नहीं आवाज दो। पाषाणों में मीठी प्यास जगायेंगे , मरुधरा को मिलकर स्वर्ग बनायेंगे। अलगावों से आग सुलगने लगती है। उपवन की हर शाख झुलसने लगती है। हर आंगन में सिर्फ सिसकियां उठती हैं। संबंधों की सांस उखड़ने लगती है। द्वेष भाव को त्याग दो , बस सबको अनुराग दो। अंधियारों में हम दीपक बन जायेंगे , मरुधरा को मिलकर स्वर्ग बनायेंगे। ढूंढ सको तो इस मिट्टी में सोना है। हिम्मत का हथियार नहीं बस खोना है। मुस्का दो तो हर मौसम मस्ताना है। बीत गया जो समय उसे क्या रोना है। लो हाथों में हाथ दो , इक दूजे का साथ दो। सन्नाटों में हम सरगम बन जायेंगे। मरुधरा को मिलकर स्वर्ग बनायेंगे। मैं तुमको विश्वास दुं , तुम मुझको विश्वास दो। हो जाओ त

बच्चों की भाषा

शिक्षण में नवाचार सम्बन्धी मेरा आईडिया प्राथमिक शिक्षा को लेकर है। दरअसल प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षण के दौरान मुझे ऐसा लगा कि कुछ बच्चें ऐसे होते है जो चीज़ो के बारे में बहुत तेजी से समझ बनाते है। वो सम्प्रेषण में इतने ठीक होते है कि बातें जल्द समझने के साथ ही ठीक दिशा में कल्पना भी कर पाते है। वहीं कुछ बच्चे कमजोर सम्प्रेषण की वजह से चीज़ो के प्रति समझ नही बनाते । यानी उन्हें बातें समझ मे नही आ पाती और वे पिछड़ जाते है। फिर चाहे कोई सा भी विषय क्यों ना हो। वो न्यूनतम भाषायी कौशल के साथ संघर्ष करते रहते है और अंततः उनके लिए चीजे मुश्किल हो जाती है। इस बात को हम एक उदाहरण से समझ सकते है। जैसे कक्षा 5 के वे बच्चे जिन्हें अपने माध्यम की किताब अच्छे से पढ़ना आती है अर्थात वे उस भाषा के प्रयोग ( पढ़ने - लिखने ) के साथ सहज है और उन्हें अधिकांश शब्दों के अर्थ पता है तो वे अन्य विषय वस्तु को बहेतर तरीके से समझ सकते है। जबकि दूसरी ओर वे बच्चे जो भाषा मे सहज नही है वे हर विषय चाहे गणित ही क्यों न हो को समझ नही पाएंगे। क्यूंकि उन्हे अधिकांश शब्दो के अर्थ ही पता नही होते। यह समस्या उनके लिए आगे जाकर औ

बच्चों की हेण्डराइटिंग........!

  हेण्डराइटिंग को जैसे दो मुक्तलिफ़ इंसानों के हाथों  की लकीरें एक सी नही होती ! नही होते समान पैरों के निशान कही;  एक सा नही होता दुनिया मे बहुत कुछ  वैसे ही सबकी लिखावट भी कहाँ होती है समान...?  बच्चें कैसे लिखते है...? झुककर बहुत नजदीक जाकर या लिखते है अधलेटे होकर घुटनो को मोड़े हुए..? कुछ बहुत जोर लगाते है अक्षरों को उकेरने में ; तो कुछ बहुत हल्के फ़ारिक हाथ से लिखते है।  हेण्डराइटिंग से व्यक्तित्व जानने के विज्ञान को ग्राफोलॉजी कहा जाता है। ऐसी साइंस में अक्षरों की बनावट , उनके बीच अंतराल व दाब का अध्ययन कर यह बताया जाता है कि अमूक व्यक्ति में अमूक  भावना की तीव्रता कितनी है ।

बालिकाओं के हिस्से के दिन...!

बालिकाएं और उनके हिस्से के दिन........! महिला, बेटी और बालिका दिवस जैसे राष्ट्रीय और वैश्विक दिनों को मनाने से भला क्या फायदा रहा होगा ....! ऐसे दिवसों की उपयोगिता कितनी है और कितनी आगे रहेगी......? फिर दुनिया मे पुरुष दिवस क्यों नही है....? क्या उन्हें जागरूकता की जरूरत नही है...? क्या वो हमेशा ही शोषक के किरदार में ही रहा...? ऐसे तमाम गैरजरूरी सवाल बच्चों के लिये बेहद जरूरी हो जाते है। ऐसा क्या था कि दुनिया और समाज के प्रबंधन का काम पुरुषों के ही हाथों में रहा....? सभ्यताओं की धुरी रही स्त्री कब कमजोरी का प्रतीक बन गयी....? क्या पता ही नही चला था...? दुविधा तो यह थी कि बच्चें ऐसे समझने वाले नही थे। उनके लिए चीजें आसान करनी होती है। उन्हें सवालों के जवाब से पहले सवालों को समझना होता है...! वरना उन्हें यह बात भला क्यों बैचेन करने लगी कि किसानी का 70% मेहनत वाला काम उनकी माँ , जीजा या बाई करती है लेकिन फिर भी किसान केवल पापा, दादा या भाभा ही है...? अगर सवाल सही ना हो तो उनके लिए तो यह समाज की सामान्य व्यवस्था ही है। इसमें कौनसी भेदभाव वाली बात है.....? इसलिए उन्हें बताया गया कि दर

भगत सिंह का खत सुखदेव को

2 भगत सिंह का पत्र सुखदेव के नाम भगत सिंह लाहौर के नेशनल कॉलेज के छात्र थे। एक सुंदर-सी लड़की आते जाते उन्हें देखकर मुस्कुरा देती थी और सिर्फ भगत सिंह की वजह से वह भी क्रांतिकारी दल के करीब आ गयी। जब असेंबली में बम फेंकने की योजना बन रही थी तो भगत सिंह को दल की जरूरत बताकर साथियों ने उन्हें यह जिम्मेदारी सौपने से इंकार कर दिया। भगत सिंह के अंतरंग मित्र सुखदेव ने उन्हें ताना मारा कि तुम मरने से डरते हो और ऐसा उस लड़की की वजह से है। इस आरोप से भगत सिंह का हृदय रो उठा और उन्होंने दोबारा दल की मीटिंग बुलाई और असेंबली में बम फेंकने का जिम्मा जोर देकर अपने नाम करवाया। आठ अप्रैल, 1929 को असेंबली में बम फेंकने से पहले सम्भवतः 5 अप्रैल को दिल्ली के सीताराम बाजार के घर में उन्होंने सुखदेव को यह पत्र लिखा था जिसे शिव वर्मा ने उन तक पहुँचाया। यह 13 अप्रैल को सुखदेव के गिरफ़्तारी के वक्त उनके पास से बरामद किया गया और लाहौर षड्यंत्र केस में सबूत के तौर पर पेश किया गया। प्रिय भाई, जैसे ही यह पत्र तुम्हे मिलेगा, मैं जा चुका होगा-दूर एक मंजिल की तरफ। मैं तुम्हें विश्वास दिलाना चाहता हूं कि आज बहुत खु

अब्राहम लिंकन.....का पत्र

आदरणीय गुरु जी,  मैं जानता हूँ कि मेरा बेटा देर –सबेर यह जान ही जाएगा कि सब लोग न ईमानदार होते हैं, और न सत्य के प्रति निष्ठावान होते हैं,पर आप उसे यह अवश्य सिखाएं कि हर दुष्ट व्यक्ति को सबक सिखाने के लिए कोई न कोई हीरो भी होता है,स्वार्थी राजनीतिज्ञों की नकेल कसने के लिए कोई न कोई समर्पित निष्ठावान नेता भी होता है,समाज में जहाँ शत्रु होते हैं, वहीँ मित्र भी होते हैं.और चाहे जितना समय लगे, पर उसे यह  अवश्य सिखाएं कि मेहनत से कमाया एक रुपया मुफ्त में प्राप्त करोड़ों से कहीं अधिक मूल्यवान है. उसे सिखाइए कि  जीवन में हार और जीत दोनों मिलती हैं, इसलिए न हार से निराश हो और न जीत से उन्मत्त हो. ईर्ष्या – द्वेष से दूर रहे, और हर्ष को हमेशा संयत ढंग से व्यक्त करे.गुंडों के सामने कभी घुटने न टेके, याद रखे कि उन्हें शिकस्त देना कठिन नहीं होता.उसे महान ग्रंथों के अद्भुत वैभव से परिचित कराइए,साथ ही उसे प्रकृति के अनंत सौंदर्य का आस्वादन करने की प्रेरणा दीजिए, आकाश की थाह लेने को आतुर पक्षियों का, सुनहरी धूप को गुंजायमान करते भ्रमरों का, पर्वतों के शिखर और ढलान पर एक ही भाव से मुस्कराते पुष्पों का आ

जिंदगी...!

रॉस की मॉम- "असल में आप रहते कहाँ है मिस्टर डॉन्सन" जेक डॉन्सन- "वैसे तो फ़िलहाल मेरा पता है IRNS टाइटैनिक और इसके बाद ईश्वर चाहे जहाँ ले जाए! " और आप पैसे कहाँ से जुटाते हैं ! "मैं जगह-जगह काम करता हूं मैम जैसे कांगो जहाज पर। वगैराह। पतों की बाजी में नसीब ने मेरा साथ दिया और मुझे टाइटैनिक की टिकिट मिली! अच्छा नसीब था " और क्या तुम्हें यह बंजारों जैसी जिंदगी अच्छी लगती है। " जी मैम अच्छी लगती है ! देखिए मेरे पास वो सब है जो मुझे चाहिए। जी मे सांस है और मुझ में काबिलियत भी। पता नही कल मेरी जिंदगी में क्या होगा ? या फिर कौंन मुझे मिलेगा ? या मैं कहाँ रहुंगा? एक रात मैंने पूल के नीचे गुजरी तो दूसरी दुनिया के सबसे शानदार जहाज पर आप लोगों के साथ सेपियंस पी रहा हूं ( थोड़ा और देना )। जिंदगी एक तोफा है इसे गवांना नही चाहिए। पता नही काल नसीब कौनसी चाल चल जाए। जिंदगी का एक-एक पल जीना चाहिए। हर दिन के लिये जीओ 😊👍👌💐 ( टाइटैनिक मूवी का हीरो )

पूर्व चलने के बटोही...। हरिवंश राय बच्चन

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी, हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी, अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या, पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी, यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है, खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले। पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले। है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे, है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे, किस जगह यात्रा ख़तम हो जाएगी, यह भी अनिश्चित, है अनिश्चित कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा, आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले। पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले। कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में, देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर, अपने समय में, और तू कर यत्न भी तो, मिल नहीं सकती सफलता, ये उदय होते लिए कुछ ध्येय नयनों के निलय में, किन्तु जग के पंथ पर यदि, स्वप्न दो तो सत्य दो सौ, स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले। पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले। स्वप्न आता स्वर्ग का, द

आषाढ़ का एक दिन

मधुल , धूसर , काले - मटमैले मेघों से बनती अनिश्चित अजीबोगरीब आकृतियों और सपाट क्षैतिज तक जाकर बरसते बादलों की गड़गड़ाहट के बीच ' मोहन राकेश   ' का नाटक - "आषाढ का एक दिन"   पढ़ना ;  यकायक  पहली बारिश में भींग जाने जैसे अहसासों से भर देता है ग्राम प्रान्त की पर्वत शिखाओं, तलहटियों  , हरण्यशावको और मल्लिका को छोड़कर ' कालीदास '  का उज्जयिनी चले जाना। जमीन से उखड़ जाने के द्वंद्व। अंबिका की चिंताएं। प्रियंगुमंजरी का मल्लिका से संवाद।  वक्त की स्पर्द्धाओं और किस्मत की दुष्वारियों से लोटती परछाइयां और अंत में लोट आने पर भी सब खो देना। मोहन राकेश ने अस्तित्ववाद के विसंगतीबोध को पूरे कथानक में पिरो दिया है। किसी को भी चुनने का अर्थ है किसी एक को न चुन पाने का अफ़सोस। एक के होने और दूसरे के खो जाने की विसंगति , अधूरेपन की पीड़ा पूरे नाटक में आद्यंत व्याप्त है। विखंडित व्यक्तित्व कालीदास कि दूसरी त्रासदी है। मन ग्रामप्रान्त के रमणीय वातावरण और मल्लिका के साथ रमता है किंतु राजसी वैभव व सांसारिक सफलताएं अपनी और खिंचती है। यही असंगति जीवन को अकाट्य तर्क बना देती है। जो न जीय