यादें
यादें सिलवटों की तरह होती है। परत-दर-परत बेतरतीबी सी सिमटी हुई। बचपन को याद करो तो लड़कपन याद आता है। वर्तमान को देखो तो अतीत हर जिल्द में पिरोया दिखता है। साल-दर-साल जमा होते जाते है और उम्र बढ़ती जाती है; जो अभी कल का लगता था उसको दशक बीत गए है। यादें डामर की सड़कों सी सपाट नहीं होती , मस्तिष्क में पगडंडियों का बिछा जाल है। एक दूसरे में गुत्थी, उलझी, धुंधलाती लकीरों सी, मानो किसी ने बहुत से धागों को एकसाथ समेट कर रख दिया हो। बहुत पुराना कुछ याद करने का प्रयास करोगे तो हाल का कुछ याद आएगा और अभी , का कुछ याद करोगे तो उसमें छुपी पुरानी याद; जी उठेगी। जब आप यादों में धंसते है ; यह देखने को की कौनसी याद सबसे पुरानी है; तब आप पाते है की उस क्षैतिज पर जाकर नजर धुंधला जाती है। दृश्य बनते और बिगड़ते है। मुकड़े याद आते है तो पहचान घूम हो जाती है; बोल फूटते है तो संदर्भ गायब हो जाते है। कुछ बड़ी घटनाएं हमेशा याद रहेगी लेकिन उनके विवरण सूखते जाते है। बहुत मुश्किल है ; यह तय कर पाना की कौनसी याद शुरुआती है। बचपन के संगी साथी याद आते होंगे, खेल और उनमें लगी चोट याद होंगी; फिर किसी को लड़कपन