मैं आजाद....

            --श्री चन्द्रशेखर आजाद--
उदास शब की घड़ियों में चंद लफ़्जात तो मेरे भी थे।
मुकाबिल दौर में आजाद ख्यालात तो मेरे भी थे ।
वतन के हमजवां दिलों ,मुझे बताओगे क्या।
वो खुली सहरों के बुलावे तो मेरे भी थे।
                                    ---   ईश्वर
जिक्र करता हूँ। एक ऐसे शख्स के बारे में जिनकी तमन्ना थी की मातृ-ए-वतन का ज़रा-ज़रा आजादी की खुशबू से महके और हिन्द की फिजाओं में एक आजाद हवा जहाँ साँस लेने की इजाजत नही लेनी पडती हो । मुल्क का हर बाशिंदा अपने आप को बेसहारा और लाचार महसूस ना करे बल्कि मन में स्वतंत्रता और महफ़ूजी का अहसास रखे। ये ख़्वाब उनकी आँख़ों ने तब देखा था जब हमे सपने देखने की आजादी भी नसीब नही थी।
मातृ-ए-हिन्द की स्वतंत्रता के लिए नाजाने कितने ही चरागों ने अपनी रोशनी कुर्बान की जिनमे से बहुतों का तो कभी हम जिक्र ही नही कर पाये । वो खामोशी से आये और सब कुछ भारती को न्योछावर कर खामोशी में ही लिन हो गये ।
लेकिन उनमें से ही कुछ रोशन चराग ऐसे थे जिनकी लौ ने चिंगारी का काम किया और यही चिंगारी आगे चल कर दुनिया के महान साम्राज्य को ध्वसत करने में कामयाब हुई।
मैं आपकी तलफ़ को और ने बढा कर उनका जिक्र कर ही देता हूँ। जिनकी आज पूण्यतिथि है ।(27-02-1931) और जिन्हें हम भूल से चूके है।
हम वक्त के ह्रास पर खडे है। जहाँ हम 5-10 रूपये कि क्रिम लगा कर 25-30 मिनट कैमरे के सामने उछल कूद करने वाले को अपना हीरो मान लेते है । लेकिन जिन्होनों ने अपना सब कुछ वतन की आजादी के लिए सिर्फ इसलिए कुर्बा कर दिया की आने वाली कोम फक्र से दुनिया में कहे सके की हमारा भी दुनिया में कोई वजुद है , हमारी भी कोई पहचान है । और हम ने उन्हें ही भूला दिया जिन्होनों हमे अपना वजुद तलाश कर दिया , भारतीय होने का गर्व  दिया।
हमने अपने नायक गलत तलाश लिए है । एक बार फिर परिभाषित करने की जरूरत है ।
कोटा के एक युवा कवि और मेरे मित्र कवि सुरेश अलबेला जी ने लिखा ।
"" हँसते-हँसते जो फाँसी वाले तख्तों पर झुल गये।
हनीसिंह तो याद रहा पर भगत सिंह को भूल गये।""
पंडित चन्द्रशेखर आजाद का जन्म 23. जुलाई सन् 1906 में भाबरा गाँव में सीताराम तिवारी और जगरानी देवी के घर हुआ । पिता आलीराजपुर रियासत में नौकरी करते थे और चाहते थे की पुत्र भी यही नौकरी करे ।  आजाद बचपन से ही बहुत चंचल और बाहदूर थे । बचपन आदिवासी बहुल इलाके भाबरा गाँव में भीलों के बच्चों के साथ तीर बाण चलाते बीता । इसलिए वह बचपन से ही निशानेबाजी में तेज थे ।
13 अप्रैल सन् 1919 की जलियावाला बाग की घटना से पूरा देश उबल गया । यही  कारण था की 1920 में गाँधीजी ने जब असहयोग आंदोलन  चलाया तो पूरा देश उमड पड़ा । तब आजाद पढाई करते थे । पढाई छोड आंदोलन मे कूद पड़े । और गिरफ्तार हुए तो पूरे १५ बेतों की सजा सुनायी । नेहरू जी ने लिखा ""एक लड़का जिसकी उम्र १५-१६ साल थी । नाम अपना आजाद बताता था। उसे १५ बेतों की सजा मिली । कपड़े उतार कर बेते मारी जाने लगी तो हर बेत के बाद भारत माता की जय बोलता और तब तक बोलता रहा जब तक की वो बेहोश ना हो गया ।""
देशभक्ती का यही जज्बा उन्हें महान क्रांतिकारी बनाता है।
काकोरी कांड में वे शामिल थे लेकिन पकडे नही गये । लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने में उन्होंनों ने भगत सिंह की मदद की और आगे चलकर एक ऐसा संगठन -"हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन" बनाय  जिसने देश भर के सारे क्रांतिकारीयों को एक साथ लाने का काम किया ।
भगत सिंह व उनके साथियों की फाँसी रूकवाने की कोशिश में व कई बार नेहरू के पास गये । और गाँधीजी के पास भी दुर्गाभाभी को भेजा पर हर बार उन्हें असफलता ही मिली ।
27-फरवरी1931 को अपने एक साथी से मिलने इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में आये हुए थे। अँग्रेज अधिकारीयों को इस बात की भनक लग गयी और उन्होंनों ने पार्क को चारों तरफ से घेर लिया और अंधाधुन गोलिया बरसाने लगे । आजादी के वीर सैनिक ने बाहदूरी से डटकर मुकाबला किया । पर जब अंत समय आता दिखा तो आजाद रहने का अपना प्ररण याद आया । आखिरी गोली से स्वंय को हमेशा के लिए आजाद कर दिया ।
भारती के इस पुत्र की शहादत ने एक चिंगारी को ऐसा भडकाया की उनकी शाहदत के 16 साल बाद ही देश आजाद हो गया ।


हम नौजवां साथियों का ये फर्ज बनता है की हम इन्हें अपना हीरो बनाये और इनका अनुसरण करें
जय हिन्द ""
मिलता हूँ। तो फिर किसी ऐसी ही शख्सियत के साथ तब तक के लिए अलविदा। --
"""ईश्वर """

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