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बारिशें

पेड़ो पर पत्तें आए कई वर्ष बीत गये, अब तो ठूंठ भी सूखकर गिर गए। हरियाली आँखों को सालों से नसीब नहीं हुई। लुप्त हो चुके गिद्धों के झुंड जाने कहाँ से फिर लौट आए। नीयति ने उनके दिनों को पलट जो दिया। ज़मीन दुःखों से फट चुके दिलों की भाँति कठोर हो चुकी थी। यह दसवाँ सावन है जब बारिश न के बराबर हुई। पहले तो आसमान पर काले बादल भी आते थे। गड़गड़ाहट के साथ बिजलियां भी चमकती थी लेकिन बिन बरसे ही लौट जाते, धीरे-धीरे उम्मीदों का इंतजार करती आंखें नमी के अभाव में शुष्क होती गयी और काले मेघों  का आना भी तीन-चार साल से बंद हो गया। मौसम विभागों के अनुमान ठोस झूठ बोल बोलकर थक चुके है, अखबार बताते हैं कि मौसम बदल गए हैं अब बारिश नहीं होगी। बारिश नहीं होगी ! तो क्या होगा जां ?...सजरी का एक पल्लू खींचते हुए उसकी आठ-नौ साल की लड़की बोली ! चिन्ता और गहरी मायूसी से अपनी लड़की के चेहरे की ओर देखते हुए कहा, " कुछ नहीं बस दरियो का पानी और खारा होगा, कंठ सुख जाएगा तो कोयल कुक नही पाएगी, मोर काली मिट्टी जैसा मटमैला होगा उसका रंग जो जाता रहेगा,  नदियाँ जमीन में समा जाएगी, मैदान रेगिस्तान बन जाएंगे और रेगिस्तान सूख

डार्विन का विकासवाद

Sunday, April 27, 2008 "डार्विन के चूल्हे पर जीवन की खिचड़ी" इंटरनेट पर एक निठल्ली सर्फिंग के दौरान आज डार्विन साहब से मुलाकात हो गई. अब ये मत पूछिए कि डार्विन कौन? डार्विन यानि चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन. चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन यानि जैव-विकास के प्रणेता. जीव-विज्ञान के वही आदि-पुरूष, जिन्होंने मनुष्य को बंदरों की संतान कहा था. वे उन्नीसवीं सदी के महान प्रकृतिविज्ञानी थे, जो महज 22 वर्ष की आयु में बीगल नामक लड़ाकू जहाज पर विश्व-भ्रमण के लिए चल पड़े थे. इस दौरान पूरी दुनिया के अनगिनत स्थानों से उन्होंने जीव-जंतु, पेड़-पौधे, पत्थर व चट्टानों के टुकड़े और जीवाश्म इकट्ठे किए. बरसों तक उन पर गहन शोध, निरीक्षण तथा विश्लेषण किया व इन खोजों का परिणाम "प्राकृतिक चयन द्वारा जाति का विकास" (Origin of species by Natural selection) नामक पुस्तक के रूप में सबके सामने आया. उद्विकास के क्षेत्र में यह किताब नींव का पत्थर साबित हुई. डार्विन के बिना जैव-विकास के सिद्धांत अधूरे हैं. खैर....मेरा इरादा यहाँ डार्विन और उनके प्रयोगों के बारे में बात करना नहीं है. मुझे तो यहाँ डार्विन के विचार

सेपियंस 1

" 20 लाख वर्ष पहले पूर्वी अफ्रीका की पदयात्रा करते हुए शायद आप का सामना मानव चरित्रों की चिर-परिचित भूमिकाओं से हो सकता था;- शिशुओं को सीने से लगाए चिंतित माताएं और मिट्टी में खेलते हुए निश्चित बच्चों के समूह,  समाज के आदेशों के खिलाफ लाल-पीले होते तुनकमिजाज नौजवान और थके हुए बुजुर्ग जो सिर्फ इतना चाहते थे कि उन्हें चैन से रहने दिया जाए। स्थानीय सुंदरी को प्रभावित करने की कोशिश करते छाती ठोकते मर्द और सयानी बूढ़ी कुलमाताएं जो यह सब कुछ पहले ही देख चुकी थी। आदिम मनुष्य प्रेम करते थे।, खेलते थे। , करीबी दोस्ती कायम करते थे और हैसियत तथा सत्ता के लिए होड़ करते थे। लेकिन यही सब चिंपांजी, लंगूर और हाथी भी किया करते थे उनमें अलग से कुछ खास नहीं था। किसी को भी स्वंय मनुष्य को भी यह जरा भी आभास नहीं था कि एक दिन उनके वंशज चंद्रमा पर चलेंगे, परमाणु का विखंडन करेंगे , जेनेटिक कोड की थाह लेंगे और इतिहास की पुस्तके लिखेंगे। प्रागैतिहासिक मनुष्यों के बारे में जानने लायक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह मामूली प्राणी थे जिनका अपने पर्यावरण पर गुरिल्लाओं, जुगनुओं और जैली मछली से ज्यादा प्रभाव नह

मैं तुमको विश्वास दु।

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मैं तुमको विश्वास दुं  मैं तुमको विश्वास दुं , तुम मुझको विश्वास दो शंकाओं के सागर हम हर जायेंगे। मरुधरा को मिलाकर स्वर्ग बनायेंगे। प्रेम बिना यह जीवन तो अनजाना है। सब अपने है कौन यहां बेगाना है। हर पल सबका अर्थवान हो जायेगा। बस थोड़ा से मन में प्रेम जगाना है। इस जीवन को साज दो , मौन नहीं आवाज दो। पाषाणों में मीठी प्यास जगायेंगे , मरुधरा को मिलकर स्वर्ग बनायेंगे। अलगावों से आग सुलगने लगती है। उपवन की हर शाख झुलसने लगती है। हर आंगन में सिर्फ सिसकियां उठती हैं। संबंधों की सांस उखड़ने लगती है। द्वेष भाव को त्याग दो , बस सबको अनुराग दो। अंधियारों में हम दीपक बन जायेंगे , मरुधरा को मिलकर स्वर्ग बनायेंगे। ढूंढ सको तो इस मिट्टी में सोना है। हिम्मत का हथियार नहीं बस खोना है। मुस्का दो तो हर मौसम मस्ताना है। बीत गया जो समय उसे क्या रोना है। लो हाथों में हाथ दो , इक दूजे का साथ दो। सन्नाटों में हम सरगम बन जायेंगे। मरुधरा को मिलकर स्वर्ग बनायेंगे। मैं तुमको विश्वास दुं , तुम मुझको विश्वास दो। हो जाओ त

बच्चों की भाषा

शिक्षण में नवाचार सम्बन्धी मेरा आईडिया प्राथमिक शिक्षा को लेकर है। दरअसल प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षण के दौरान मुझे ऐसा लगा कि कुछ बच्चें ऐसे होते है जो चीज़ो के बारे में बहुत तेजी से समझ बनाते है। वो सम्प्रेषण में इतने ठीक होते है कि बातें जल्द समझने के साथ ही ठीक दिशा में कल्पना भी कर पाते है। वहीं कुछ बच्चे कमजोर सम्प्रेषण की वजह से चीज़ो के प्रति समझ नही बनाते । यानी उन्हें बातें समझ मे नही आ पाती और वे पिछड़ जाते है। फिर चाहे कोई सा भी विषय क्यों ना हो। वो न्यूनतम भाषायी कौशल के साथ संघर्ष करते रहते है और अंततः उनके लिए चीजे मुश्किल हो जाती है। इस बात को हम एक उदाहरण से समझ सकते है। जैसे कक्षा 5 के वे बच्चे जिन्हें अपने माध्यम की किताब अच्छे से पढ़ना आती है अर्थात वे उस भाषा के प्रयोग ( पढ़ने - लिखने ) के साथ सहज है और उन्हें अधिकांश शब्दों के अर्थ पता है तो वे अन्य विषय वस्तु को बहेतर तरीके से समझ सकते है। जबकि दूसरी ओर वे बच्चे जो भाषा मे सहज नही है वे हर विषय चाहे गणित ही क्यों न हो को समझ नही पाएंगे। क्यूंकि उन्हे अधिकांश शब्दो के अर्थ ही पता नही होते। यह समस्या उनके लिए आगे जाकर औ

बच्चों की हेण्डराइटिंग........!

  हेण्डराइटिंग को जैसे दो मुक्तलिफ़ इंसानों के हाथों  की लकीरें एक सी नही होती ! नही होते समान पैरों के निशान कही;  एक सा नही होता दुनिया मे बहुत कुछ  वैसे ही सबकी लिखावट भी कहाँ होती है समान...?  बच्चें कैसे लिखते है...? झुककर बहुत नजदीक जाकर या लिखते है अधलेटे होकर घुटनो को मोड़े हुए..? कुछ बहुत जोर लगाते है अक्षरों को उकेरने में ; तो कुछ बहुत हल्के फ़ारिक हाथ से लिखते है।  हेण्डराइटिंग से व्यक्तित्व जानने के विज्ञान को ग्राफोलॉजी कहा जाता है। ऐसी साइंस में अक्षरों की बनावट , उनके बीच अंतराल व दाब का अध्ययन कर यह बताया जाता है कि अमूक व्यक्ति में अमूक  भावना की तीव्रता कितनी है ।

बालिकाओं के हिस्से के दिन...!

बालिकाएं और उनके हिस्से के दिन........! महिला, बेटी और बालिका दिवस जैसे राष्ट्रीय और वैश्विक दिनों को मनाने से भला क्या फायदा रहा होगा ....! ऐसे दिवसों की उपयोगिता कितनी है और कितनी आगे रहेगी......? फिर दुनिया मे पुरुष दिवस क्यों नही है....? क्या उन्हें जागरूकता की जरूरत नही है...? क्या वो हमेशा ही शोषक के किरदार में ही रहा...? ऐसे तमाम गैरजरूरी सवाल बच्चों के लिये बेहद जरूरी हो जाते है। ऐसा क्या था कि दुनिया और समाज के प्रबंधन का काम पुरुषों के ही हाथों में रहा....? सभ्यताओं की धुरी रही स्त्री कब कमजोरी का प्रतीक बन गयी....? क्या पता ही नही चला था...? दुविधा तो यह थी कि बच्चें ऐसे समझने वाले नही थे। उनके लिए चीजें आसान करनी होती है। उन्हें सवालों के जवाब से पहले सवालों को समझना होता है...! वरना उन्हें यह बात भला क्यों बैचेन करने लगी कि किसानी का 70% मेहनत वाला काम उनकी माँ , जीजा या बाई करती है लेकिन फिर भी किसान केवल पापा, दादा या भाभा ही है...? अगर सवाल सही ना हो तो उनके लिए तो यह समाज की सामान्य व्यवस्था ही है। इसमें कौनसी भेदभाव वाली बात है.....? इसलिए उन्हें बताया गया कि दर