बारिशें

पेड़ो पर पत्तें आए कई वर्ष बीत गये, अब तो ठूंठ भी सूखकर गिर गए। हरियाली आँखों को सालों से नसीब नहीं हुई। लुप्त हो चुके गिद्धों के झुंड जाने कहाँ से फिर लौट आए। नीयति ने उनके दिनों को पलट जो दिया। ज़मीन दुःखों से फट चुके दिलों की भाँति कठोर हो चुकी थी। यह दसवाँ सावन है जब बारिश न के बराबर हुई। पहले तो आसमान पर काले बादल भी आते थे। गड़गड़ाहट के साथ बिजलियां भी चमकती थी लेकिन बिन बरसे ही लौट जाते, धीरे-धीरे उम्मीदों का इंतजार करती आंखें नमी के अभाव में शुष्क होती गयी और काले मेघों  का आना भी तीन-चार साल से बंद हो गया।

मौसम विभागों के अनुमान ठोस झूठ बोल बोलकर थक चुके है, अखबार बताते हैं कि मौसम बदल गए हैं अब बारिश नहीं होगी।

बारिश नहीं होगी ! तो क्या होगा जां ?...सजरी का एक पल्लू खींचते हुए उसकी आठ-नौ साल की लड़की बोली ! चिन्ता और गहरी मायूसी से अपनी लड़की के चेहरे की ओर देखते हुए कहा, " कुछ नहीं बस दरियो का पानी और खारा होगा, कंठ सुख जाएगा तो कोयल कुक नही पाएगी, मोर काली मिट्टी जैसा मटमैला होगा उसका रंग जो जाता रहेगा,  नदियाँ जमीन में समा जाएगी, मैदान रेगिस्तान बन जाएंगे और रेगिस्तान सूखकर चट्टानों में तब्दील हो जायेगा , कुछ नही बस एक दिन पीने को पानी नही होगा !
यह कह देना कितना आसान है और इसे जीना कितना असम्भव । सजरी ने आसमान के नैपथ्य में छेद करने वाली गौर निराशा से देखा। आषाढ का यह अंतिम दिन है पर सफ़ेद बादलों के झुंड में कहीं काला धब्बा तक नहीं आया, कहां वो दिन जब अब तक बावन हो चुकी होती। खेत जुत गए होते ; धरती हरी घास की चादर ओढ़ कर सोंधी खुशबू से लीन हो जाती, सावन आते आते छोटे-मोटे तालाब-तलैया उबक जाते, पंछियों की चहचाहट और किट पतंगों की भरमार से पूरा वातावरण संजीव हो उठता। हर जगह जीवन की मौजूदगी धरती को आबाद कर देती।

और कहाँ आज, गर्म हवाओं के थपेड़े, दरारें पड़ी जमीनें, रोज मरते मवेशियों के झुंड के झुंड वातावरण को नीम उदासी में तब्दील करते हैं। दरख्तों के ठूंठ दिमक से ढँककर मिट्टी के ढेर बनते जा रहे है । कहते है पहले धरती का ताप बढ़ा फिर पहाड़ों की बर्फ पिघली नदियों में उफान आया और समुंदर ऊंचे उठ गए। फिर बारिशों के चक्र बदले। देर से आने लगी। जहाँ खूब होती थी वहाँ से मुँह मोड़ गयी। जहां न के बराबर होती थी वहाँ कहर बनकर बरसी। 5-10 साल में मौसमों का पैटर्न बदल गया।कही गर्मियां लम्बी हो गई तो कही गर्मियां ही बच गयी।

लेकिन इंसानों न अब भी क़ुदरत के इन सेंकेतो को नजरअंदाज करना जारी रखरखा है। वो जो दूर कलकारखानों से निकलते धुंवे के बवंडर है जिन्हें दूर गाँव वाले  बादल समझकर बारिश की उम्मीद बांधे बैठे है उन्हें किसी ने नही बताया है कि वो जहर है जो छेद कर देते है कुदरती दिलों में, दमघोट देते है धरती के फेफड़ो का।
काश हम कम तरक़्क़ी करते और यह समझ पाते कि जिंदगी का कोई विकल्प नहीं होता, जीवन का महत्व सही समय पर जान जाते।  जल, पेड़, हवा, पहाड़, दरख़्तों को बचाते तो आज वे हमें बचाते। क़ुदरत वीरान नहीं होती, काश अब और वक्त होता हमारे पास......!

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