डार्विन का विकासवाद

Sunday, April 27, 2008


"डार्विन के चूल्हे पर जीवन की खिचड़ी"


इंटरनेट पर एक निठल्ली सर्फिंग के दौरान आज डार्विन साहब से मुलाकात हो गई. अब ये मत पूछिए कि डार्विन कौन? डार्विन यानि चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन. चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन यानि जैव-विकास के प्रणेता. जीव-विज्ञान के वही आदि-पुरूष, जिन्होंने मनुष्य को बंदरों की संतान कहा था. वे उन्नीसवीं सदी के महान प्रकृतिविज्ञानी थे, जो महज 22 वर्ष की आयु में बीगल नामक लड़ाकू जहाज पर विश्व-भ्रमण के लिए चल पड़े थे. इस दौरान पूरी दुनिया के अनगिनत स्थानों से उन्होंने जीव-जंतु, पेड़-पौधे, पत्थर व चट्टानों के टुकड़े और जीवाश्म इकट्ठे किए. बरसों तक उन पर गहन शोध, निरीक्षण तथा विश्लेषण किया व इन खोजों का परिणाम "प्राकृतिक चयन द्वारा जाति का विकास" (Origin of species by Natural selection) नामक पुस्तक के रूप में सबके सामने आया. उद्विकास के क्षेत्र में यह किताब नींव का पत्थर साबित हुई. डार्विन के बिना जैव-विकास के सिद्धांत अधूरे हैं. खैर....मेरा इरादा यहाँ डार्विन और उनके प्रयोगों के बारे में बात करना नहीं है. मुझे तो यहाँ डार्विन के विचारों के बारे में बात करनी है. जानते हैं, स्कूल में मेरे लिए डार्विन के सिद्धांतों का महत्व 10 नंबर के एक प्रश्न के उत्तर के अलावा कुछ भी नहीं था. पर जब धीरे-धीरे समझ बढ़ने लगी, तो यही सिद्धांत जीवन से जुड़े लगने लगे. तब मेरे लिए डार्विन के सिद्धांत केवल जानकारी थे, लेकिन अब उनकी अनुभूति होने लगी है. ओशो के शब्दों में- "एक ज्ञान है- केवल जानना, जानकारी और बौद्धिक समझ. दूसरा ज्ञान है- अनुभूति, प्रज्ञा, जीवंत प्रतीति. एक मृत तथ्यों का संग्रह है, एक जीवित सत्य का बोध है. ज्ञान को सीखना नहीं होता है, उसे उघाड़ना होता है. सीखा हुआ ज्ञान जानकारी है, उघड़ा हुआ ज्ञान अनुभूति है." डार्विनवाद के ज़रिए कितने आसान शब्दों में डार्विन ने जीवन की परिभाषा गढ़ दी थी. आइए, उसी डार्विनवाद के भीतर झाँककर जीवन को देखने की कोशिश करते हैं.

डार्विन ने जीवन-संघर्ष (Sturrgle for Existance) को प्राणी के विकास का आधार माना है. अगर विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में देखें तो, जनसंख्या बढ़ जाने के कारण भोजन तथा आवास के लिए प्राणियों में एक सक्रिय संघर्ष उत्पन्न होता है, जिसे जीवन-संघर्ष कहते हैं. यह संघर्ष तीन प्रकार का होता है:1. सजातीय (एक ही जाति के सदस्यों के बीच) 2. अंतर्जातीय (दो जातियों के सदस्यों के बीच) 3. वातावरणीय (वातावरणीय कारकों के साथ). अपने अस्तित्व को बचाने के लिए हर प्राणी को इन संघर्षों से जूझना ही है. ठीक ही कहा था डार्विन ने... हम सब भी तो जीवन-संघर्ष में उलझे हुए हैं. कदम-कदम पर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए किसी-न-किसी संघर्ष से दो-चार हो रहे हैं. पैसा, सफलता, परिवार, शोहरत, कॅरियर, हर जगह संघर्ष पसरा पड़ा है. जाति के दायरे में ही जीवन के लिए संघर्ष शुरू होता है. एक ही ऑफ़िस के दो कर्मचारियों के बीच प्रमोशन के लिए सजातीय संघर्ष हो रहा है, तो वहीं बॉस और अधीनस्थों के बीच अपने- अपने इगो को लेकर अंतर्जातीय संघर्ष हो रहा है. एक आदमी अपने अरबों रूपये कहाँ निवेश करे इस बात के लिए संघर्ष कर रहा है, वहीं दूसरा आदमी अपने भूखे बच्चों के लिए एक वक़्त की रोटी का जुगाड़ कैसे करे, इस बात के लिए संघर्ष कर रहा है. घर में हो या बाहर, वातावरणीय संघर्ष से तो हम रोज़ जूझते हैं. वातावरण तो प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष हर रूप में प्राणी को प्रभावित करता है. वातावरण जितना अनुकूल, जितना पवित्र, जितना ऊर्जा से लबरेज, जितना मेहनत और ईमान से सराबोर, परिस्थितियों से संघर्ष उतना कम... वातावरण जितना प्रतिकूल, जितना ख़राब, स्वार्थ, झूठ और मक्कारी से भरा हुआ, संघर्ष उतना ज्यादा. संघर्ष हर कहीं है और हर कोई अपने-अपने स्तर पर संघर्षरत है. सच्चाई तो यह है कि बिना संघर्ष के जीवन में सौंदर्य नहीं रहता. संघर्ष ही जीवन का ध्येय है, विकास की पहली शर्त है.

डार्विन के अनुसार- जीवन-संघर्ष में योग्यता की हमेशा जीत होती है और अयोग्यता हमेशा हारती है. प्रकृति स्वयं अपने लिए अनुकूल जीवों का चयन करती है. डार्विन ने इसे प्राकृतिक चयन (Natural selection) कहा था. जीवन-संघर्ष में वातावरण के अनुकूल जीवों का जीवित रहना व प्रतिकूल जीवों का नष्ट होना ही प्राकृतिक चयन है. इसी प्राकृतिक चयन को हर्बर्ट स्पेंसर ने योग्यतम की उत्तरजीविता (Survival of the fittest) नाम दिया था. वातावरण के लिए पूर्णत: अनुकूल जीव योग्यतम कहलाते हैं. हमारे दैनिक जीवन में भी इसके कई उदाहरण देखने को मिल जाएँगे. आज भी जीवन के हर क्षेत्र में संघर्ष के बाद जीत अंतत: योग्यता की ही होती है. योग्यतम जीव स्वयं को बहुत आसानी से अपने परिवेश के अनुसार ढाल लेते हैं और परिस्थितियों के सामने अधिक समय तक टिके रहते हैं. वातावरण सदा ही परिवर्तनशील है, इसलिए जिन्हें अपना अस्तित्व बचाना है, वे हर प्रतिकूल परिस्थिति का डटकर सामना करते हैं और उसे अपने अनुकूल बना लेते हैं, और अगर परिस्थितियों को अनुकूल नहीं बना पाते तो स्वयं परिस्थितियों के अनुकूल बन जाते हैं.

डार्विन ने जीवों में विविधता की भी व्याख्या की है. उनके अनुसार प्रत्येक प्राणी अद्वितीय होता है. एक ही वंश, एक ही जाति, यहाँ तक कि एक ही माता-पिता की जुड़वाँ संतानों में भी विविधता होती है. ईश्वर की दक्षता की दाद देनी होगी, जिसने हर कृति का निर्माण ऐसे किया है कि वह अपने-आप में विलक्षण है. एक चींटी से लेकर एक डायनासोर तक और एक शैवाल से लेकर एक विशालकाय वृक्ष तक सभी यूनिक जीनोटाइप और फ़ीनोटाइप के मालिक हैं. भगवान को भी आश्चर्य होता होगा कि इतना ख़ास बनाने के बाद भी हम उसके सामने अपनी कमियों का रोना रोते रहते हैं. परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं...जीव बदलते रहते हैं... और विभिन्नताओं के कारण धीरे-धीरे नई जाति की उत्पत्ति होती है. विविधता बढ़ती जाती है और नई पीढ़ी अपने पूर्वजों से श्रेष्ठ होती जाती है. अपनी रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातों में भी प्रकृति की तरह थोड़ी विविधता लाकर देखिए, बिलकुल नए और तरो-ताज़ा कर देने वाले परिणाम मिलेंगे. परिवर्तन का नियम हमें प्रकृति ने ही सिखाया है.

डार्विन ने अपने प्रयोगों से यह भी निष्कर्ष निकाला कि विकास के दौरान बड़े जानवर भोजन की कमी, जीवन और वातावरणीय संघर्ष में समाप्त होते गए तथा छोटे आकार के प्राणी अपने प्राकृतिक आवास, स्वभाव में परिवर्तन के कारण जीवन को सुचारू रूप से चला सके. बात तो सही है... आज भी वही कामयाब है जो अपने स्वभाव में परिवर्तन करने और खुद को माहौल में ढालने की हिम्मत रखता हो. जीवन की शुरुआत में ही प्रकृति ने अपनी हर रचना को "एडजस्टमेंट" नामक शब्द सिखा दिया था. छोटे प्राणियों को इस शब्द का अर्थ समझने में कोई परेशानी नहीं आई, पर जहाँ बड़प्पन आड़े आ गया वहाँ न अनुकूलता रही, न योग्यता और न ही उत्तरजीविता. भीमकाय डायनासोर की विलुप्ति और सूक्ष्मजीवियों का आज तक अस्तित्व में होना इसका बेहतरीन उदाहरण है.

अणु और परमाणुओं से जीवन की उत्पत्ति हुई, एक कोशिका के रूप में जीवन का विकास हुआ और विकास के असंख्य स्तरों को पार करता हुआ जीवन आज बुद्धिमत्ता की उस चरम सीमा तक पहुँच गया, जिसे मनुष्य कहते हैं... जीवन-संघर्ष के योग्यतम पात्र मनुष्य ने आज प्रकृति पर विजय पा ली है. आज वह प्रयोगशाला में मनचाहे वातावरण में, मनचाही नस्लों का निर्माण कर रहा है...आज हर उस काम में उसकी दखलअंदाजी है, जो कभी प्रकृति ने किए थे. उद्विकास आज भी जारी है...संघर्ष अब भी बरकरार है...एक ऐसी अनवरत प्रक्रिया जो शायद ही कभी थमे...

जगदीश गुप्तजी के शब्दों में डार्विनवाद का सार देखिए-

"सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही.
संघर्ष से हटकर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम,
जो नत हुआ, वो मृत हुआ, ज्यों वृंत से झरकर कुसुम,
जो लक्ष्य भूल रूका नहीं, जो हार देख झुका नहीं,
जिसने प्रणय-पाथेय माना, जीत उसकी ही हुई.
सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही.

ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे,
जो है जहाँ, चुपचाप अपने आप से लड़ता रहे,
जो भी परिस्थितियाँ मिलें, काँटे चुभें, कलियाँ खिलें,
हारे नहीं इंसान, है संदेश जीवन का यही,
सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही."

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