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होमो सेपियंस कि भाषा।

सेपियंस की सम्प्रेषण दक्षता  सबसे बड़ी खूबी उसकी भाषा का लचीलापन है। हम इतनी भिन्न ध्वनियों के समूह का निर्माण करने में कामयाब रहे है जिससे कि  हम जीवन भर गॉसिप कर सके, महाग्रन्थों को रच सके। लचीला होने का मतलब हम एक ही ध्वनि को अन्य कई ध्वनियों के साथ प्रयोग कर अंतहीन संवाद कर सकते है। यानी हमारी भाषा एक ठोस कड़ा नही होकर ध्वनियों कि एक माला है डॉ हरारी इसके लिए मिसाल देते है कि एक बंदर एक आवाज निकालकर केवल यह कह सकता है  कि "भागो शेर आया है" लेकिन एक होमो सेपियंस इस पर घण्टो बतिया सकता है कि मैंने नदी किनारे एक शेर को हिरणों का पीछा करते देखा है , वो हमारी तरफ आ सकता है और उसे कैसे खदेड़ा जाए....इत्यादि इत्यादि। बताने के अलावा वो सम्भावित परिणामो व उपायों की कल्पना भी कर सकता है। सेपियंस कि इन भाषाई दक्षताओं ने उसे दो काम करने में समर्थ बनाया। पहला गपशप (गॉसिप) करना और दूसरा कल्पनाओं की असीमित उड़ान भरना। गॉसिप करने की खूबी ने होमो सेपियंस को एक गजब की सामाजिक समायोजन की ताकत दी। अब वो समूह में लोगो की निंदा कर सकता था, बोलकर सहयोग व साथ कि गुजारिश कर सकता था और चालाकी से अपन

ए डायरी ऑफ यंग गर्ल।

जैसे आप हो? जैसा आपने महसूस किया ? जो सोचा ? वैसा का वैसा खुद को व्यक्त कर देना, किसी से बात करते वक्त या डायरी लिखते समय मन खोलकर रख देना उतना आसान नही होता जितना लगता है। हम सब जब भी कुछ लिखने का प्रयास करते है खुद के साथ भी पूरी  ईमानदारी से पेश नही आते। यानी हम अपने मनोभावों को पूरी तरह से व्यक्त नही कर पाते है। यहां तक कि हम एक कागज के सामने भी अपना दिल खुलकर नही रख सकते। उससे भी बहुत सी बातें छुपाते है। उससे भी चालाकियां करते है। और उसे भी चयनात्मक ही बताते है। पारदर्शी अभिव्यक्ति सबसे मुश्किल है। लोग अक्सर एक पेज भी बिना किसी बनावट के या लागलपेट के नही लिख सकते है! अपने बारे मैं भी नही; और जो लिख दे तो समझो उसका लेखन कौशल संवेदना की दृष्टि में सर्वोच्च है। अज्ञेय के शब्दों में कह तो भोगने वाले मन और रचना करने वाले मन के मध्य एक अनिवार्य अंतराल होता है। चालाकियों और प्रतीकों की एक खाई होती है । यह अन्तराल जितना कम, यह खाई जितनी उथली होगी। रचना उतनी ही महान बन जाएगी। पश्चिमी साहित्यालोचक टी एस इलियट ने इसे "ऑब्जेक्टिव कोरिलेटिव" कहा है। अर्थात आप जो सोचते और महसूस करत

दो पत्रकार दो आत्मकथा

दो पत्रकार। दो आत्मकथाएँ। वो भी भारत की आजादी के बाद के दौर से लेकर वर्तमान तक के एक समान कथानक और कंटेंट में । अपने आप मे रोचक और तुलनात्मक अध्ययन है। आप समझ पाते है कि एक ही घटना को ठीक उसी वक्त में  दो अलग-अलग  लोग किस तरह दर्ज कर रहे थे? पत्रकार का जीवन सही मायने में किसी समाज के बदलावों का ज्यादा प्रमाणिक और रोचक साक्षी होता है। बेशर्त की वो सही मायने में पत्रकारिता करता रहा हो और जिसने अपने पेशे को जिया हो। अंग्रेजी के पत्रकारों द्वारा लिखी जाने वाली आत्मकथाओं और दूसरों की जीवनियों को खूब पढा जाता रहा है इसकी एक वजह तो यह रही हो कि उनके पास अच्छी लेखन कला के सिवाय चौका देने वाले किस्सों  की कमी नही होती है। दूसरी वजह उन से होने वाले ख़ुलासे है। जो राजनीतिक खिचड़ी में मसाले का काम करते आये है। कुलदीप नैयर और करण थापर। दोनो का जीवन अलग अलग पृष्टभूमियो और परिस्थितियों में बिता। कुलदीप  का परिवार बंटवारे से पूर्व सियालकोट में रहता था और बंटवारे के बाद भारत आया। ऐसे में तक़सीम में हुई नाइंसाफियों और बदनसिबियो को उन्होंने न केवल नजदीक से देखा बल्कि भोगा भी। उन्होंने बंटवारे के लिए तैया

पहला कदम मानसिक मजबूती

"Note- यह लेख सिविल सर्विस में चयनित अनामित व्यक्ति का है। अच्छा लगा इसलिए मेरे ब्लॉग पर पुनः प्रकाशित किया गया है।  सारा क्रेडिट उनका है अपने हिस्से केवल साझा करने का श्रेय है।" यदि आपने आई.ए.एस. बनने का फैसला कर ही लिया है, तो देश के इस सबसे बड़े और काफी कुछ कठिन दंगल में आपका स्वागत है। मेरी शुभकामनाएं भी हैं, और ईश्वर से आपके लिए प्रार्थना भी है कि वह लम्बे समय तक आपके धैर्य, आपके आत्मविश्वास और आपके जोश को बनाए रखे, क्योंकि ये बातें इसके लिए बहुत जरूरी होती हैं। फिर भी, इससे पहले कि मैं आपको यह बताऊं कि आप आई.ए.एस. कैसे बन सकते हैं, मैं आपसे एक प्रश्न पूछने की, बहुत ही जरूरी और मूलभूत प्रश्न पूछने की इजाजत चाहूँगा। मैं आपसे यह प्रश्न इसलिए पूछना चाह रहा हूँ, क्योंकि मैंने आई.ए.एस. के विद्यार्थियों का मार्गदशन करने के अपने लम्बे अनुभव में यह पाया है कि हमारे नौजवान जोश में आकर पर्याप्त सोचे-समझे बिना ही इस दंगल में कूद पड़ते हैं, और कुछ सालों तक पटखनी खाने के बाद पस्त होकर इससे बाहर आ जाते हैं। इसलिए मुझे लगता है कि इस प्रतियोगिता में उतरने से पहले प्रत्येक स्टूडेन्ट को ख

जिंदगी धूप और छाँव की उपमा ही नही

जिंदगी धूप और छाँव की उपमा ही नही। एक तेरे होने का अहसास भी है। अब, दुनियां इतनी छोटी भी नहीं की, उसे मुट्ठी में दबाकर तेरी जेबों में भर दू। या तारे इतने योग्य नहीं की उन्हे तेरे लिए जमी पर उतारू सुनाना तुझे मै  परीकथाओं की कहानियां भी नही चाहता नही चाहता मै कि, तू मेरी नज़र से ही देखे  मुझसा ही सोचे, चले , गुनगुनाएं वैसे तो रंग-ए-दुनिया में कहने को क्या नही , पर जो तुझसे कहना हो तो बस यही की।    "तेरी मासूम हथेली के स्पर्श से जो मुझमें संजीव हो उठा , उस जीवटता को जीने के लिए तुम्हारा स्वागत है बच्चे।।"

सोचा तो यह भी था कि

सोचा तो यह भी था कि तिनके बटोर ने की जुगत में जिंदगी जाया न करेंगे भूल जाएँगे उन खताओं को जो कभी की ही नही थी उन्होंने माफ करेंगें उनको भी जिनके जुर्म न थे कुछ दो बातों का गम वहाँ भी रखेंगे लोग जहां सब्र के बांध तोड़ देते है सोचा तो यह भी था कि पचायेंगे दूसरों की सफलताओं को सहन करना सीखेंगे खुदको थप थपाएँगे किसी कि पीठ मायूसी में कंधे लेकर हाजिर होंगे अपने विफलता पे हंसने से रोकेंगे खुदको उठने को थामेंगे , बढाएंगे हाथ सोचा तो यह भी था कि जारी रखेंगें अपनी सहज हँसी को कुटिल मुस्कुराहटों से करेंगे परहेज कुचलने से रोकेंगे खुद को, औरों का स्वाभिमान पता तो यह भी था कि इतना आसान न होगा यह सब , .....................! Ishwar Gurjar  Mail - ishwargurjar9680@gmail.com

रेखाएं हाथों की खुद ही जोतनी होगी

लम्हें खास होने की अदावत में है तू एक भरी नजर तो देख। कुछ नया करने की इच्छा दबाए पांवों से कुरेदते जमी वक्त सफेद बादलों सा उड़ रहा मकबूल मौसम कभी रहे तो नही यह दुःख , मायूसी , उसकी शरारत में है तू एक भरी नजर तो देख। रेखाएं हाथों की ख़ुद ही जोतनी होगी कर्मो पर चलाने होंगे,  हल बुनने होंगे रूई से ख़्वाब यूंही आखिर पत्ते जड़ नही जाते बगैर नई कपोलों की आहट यह हार, शिकस्त , पस्त  तो किस्मत में हैं तू एक भरी नजर तो देख। मछलियां बड़ी, छोटी को, खा भी तो जाती है उन पर नही लगता धर्म का पाप कोई अनैतिक भी तो नही है, मानता सदियों से चलन भी तो यही रहा यह बदलती वफ़ाए, न्याय के दोहरे मापदंड हकीकत में है तू एक भरी नजर तो देख। इसलिए दुविधाएँ कम हो जितनी, सही है द्वंद्व का चिंतन, अक्सर बेअसर है सोचते नही,  रचने वाले, सुविधानुसार, विचारधाराओं को प्रस्तावक, बदलते रहते है, अक्सर जरूरत पड़ने पर, कूच कर जाते है लश्कर, अपने हिस्से के साथ सब होते है, मगर न होते साथ कोई यह एकाकीपन , बिछुड़न तो सफर में है तू एक भरी नजर तो देख। इसलिए , रेखाएं हाथों की खुद ही जोतनी होगी। Ishwar Gurja r  Mail