दो पत्रकार दो आत्मकथा


दो पत्रकार। दो आत्मकथाएँ। वो भी भारत की आजादी के बाद के दौर से लेकर वर्तमान तक के एक समान कथानक और कंटेंट में । अपने आप मे रोचक और तुलनात्मक अध्ययन है। आप समझ पाते है कि एक ही घटना को ठीक उसी वक्त में  दो अलग-अलग  लोग किस तरह दर्ज कर रहे थे?

पत्रकार का जीवन सही मायने में किसी समाज के बदलावों का ज्यादा प्रमाणिक और रोचक साक्षी होता है। बेशर्त की वो सही मायने में पत्रकारिता करता रहा हो और जिसने अपने पेशे को जिया हो। अंग्रेजी के पत्रकारों द्वारा लिखी जाने वाली आत्मकथाओं और दूसरों की जीवनियों को खूब पढा जाता रहा है इसकी एक वजह तो यह रही हो कि उनके पास अच्छी लेखन कला के सिवाय चौका देने वाले किस्सों  की कमी नही होती है। दूसरी वजह उन से होने वाले ख़ुलासे है। जो राजनीतिक खिचड़ी में मसाले का काम करते आये है।

कुलदीप नैयर और करण थापर। दोनो का जीवन अलग अलग पृष्टभूमियो और परिस्थितियों में बिता। कुलदीप  का परिवार बंटवारे से पूर्व सियालकोट में रहता था और बंटवारे के बाद भारत आया। ऐसे में तक़सीम में हुई नाइंसाफियों और बदनसिबियो को उन्होंने न केवल नजदीक से देखा बल्कि भोगा भी। उन्होंने बंटवारे के लिए तैयार की जा रही उन्मादी नींव के पत्थरों को भी अपने बचपन में जमते देखा तो आजाद भारत की लोकतांत्रिक बुनियाद हिला देने वाली घटनाओं को भी।

नैयर ने अपनी आत्मकथा One Life Is Not Enough में पाकिस्तान के निर्माण और फिर बांग्लादेश के रूप में पुनः विभाजन, शरणार्थी समस्या, कश्मीर विवाद,  भारत की नवजात आजादी के समक्ष चुनोतियाँ, लोकतांत्रिक संस्थाओं का मजबूत होना और फिर उनके खोखले होने की घटनाओं, आंतरिक सुरक्षा और एकता  के खतरों,  भारत की राजनीतिक चुनोतियों व भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों पर बारिक लेखन पढ़ने को मिलता है। उनकी निजी जिंदगी और भारत में पत्रकारिता के विकास और उतार-चढ़ाव पर भी उन्होंने लिखा। इन सबके अलावा राजनीतिक किस्सों, ब्यूरोक्रेसी के अंदरूनी स्वरूप व मीडिया घरानों कि क़ई सच्चाईयाँ है।

करण थापर भारतीय पूर्व थलसेनाध्यक्ष प्राणनाथ थापर के बेटे है और अंग्रेजी के बड़े पत्रकार माने जाते रहे।  आभिजात्य वर्ग तक पहुंच उन्हें विरासत में मिली। इसी पहुंच और अपनी प्रतिभा के बल बुते उन लोगो के जीवन को नजदीक से देख सके जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास और भूगोल को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनकी आत्मकथा घटनाओं की तथ्यात्मक जानकारियों और विश्लेषण कि बजाय अपने निजी जीवन से जुड़े पहलुओं पर अधिक प्रकाश डालती है। करण थापर कि सम्प्रेषण कला सराहनीय है इसलिए उन्हें पढ़े समय भी किस्सागोई कि वजह से पूरी किताब एक रोचक कहानी जान पड़ती है।

इन्होंने अपने दून स्कूल और कैम्ब्रिज में अपनी पढ़ाई के दौर का प्रभावी वर्णन किया है। मीडिया में किये इनके प्रयोगों के अलावा बेनजीर भुट्टो व आंग सान सूकी से इनकी दोस्ती के किस्से है। नैयर कि आत्मकथा जहां आपको घटनाओं पर एक सम्पूर्ण समझ बनाने में मदद करती है जो कि एक अच्छे पत्रकार कि खूबी भी है वही थापर ऐसा कोई प्रभाव नही छोड़ पाते है लेकिन उनकी आत्मकथा रोचकता लिये हुए है जो उसे पठनीय बनाता है।

आत्मकथाओं कि तुलना करना उतना ही बचकाना और निरर्थक है जितना कि दो जुदा जिंदगियों की।

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