अनुभूतियां
मानव अनुभूतियों के अपने विचित्र समागम होते है। कोई भी अनुभूति स्वभाव में हमेशा के लिए नही रहती। उसका जैवरासायनिक अस्तित्व मनुष्य के रक्त में स्त्रावित सम्बंधित हार्मोन के अस्तित्व पर ही निर्भर करता है। अर्थात हम किसी खास किस्म के अनुभव को तब तक ही महसूस करते है जब तक कि वो सम्बंधित हार्मोन हमारे रक्त में असरदार रहे। मनुष्यों में अनुभूतियों को सामान्य करने की शानदार अनुकूलता पायी जाती है अर्थात आप पीड़ा व आनंद को एक स्तर के बाद उसी मात्रा में उतने ही वेग से महसूस करना बंद कर देते है। यही वजह है कि लोग वज्र पीडाओं को जेलकर भी जी जाते है। रोने को किसी के पास समुद्र नही होता। सुख के साथ भी ऐसा ही है खूब हासिल कर लेने के बाद भी आप ऊब जाते है क्योंकि अब आपको यह सफलताएं और तारीफें रोमांचित नही करती जितनी कि पहले करती थी अब रोमांचित करने के लिए कुछ और बड़ा चाहिए फिर उससे भी बड़ा। लाखो की लॉटरी लगने की खुशी का उछाल उतना ही जल्दी सामान्य हो जाता है जितना जल्दी बिजिनेस में दिवालिया होने के दुःख की खाई पटती है। हर किसी की अनुभूति का एक स्तर होता है इसलिए जिस विचार या दृश्य पर शायद आपको आश्चर्य