सेपियंस

'युवाल नोआ हरारी'  की किताब  "सेपियंस"  में मनुष्य की साझी कल्पना के बारे में बताया गया है की कैसे कुछ मिथकों में साझा विश्वास करने की वजह से लाखों अपरिचित मनुष्य भी एक साथ सहयोग करने के लिए  तैयार हो जाते है। सियासत, मजहब , राष्ट्र और पैसे कुछ और नही हमारी साझी कल्पनाओं के उत्पाद है। सहयोग करने के लिए यह जरूरी है कि हमारे लोक विश्वास साझे हो। और हमने यह किया।

सहयोग की प्रबलता इसी बात पर निर्भर करती है कि लोग कितनी शिद्दत से उस मिथक में विश्वास करते है। यही वजह है कि वक्त के साथ कुछ मिथकों की प्रासंगिकता क्षीण होने लगती है और कुछ की अधिक मजबूत। उदाहरण के लिए जैसे-जैसे सभ्यताए और समाज तार्किक होते जाएंगे वैसे-वैसे मजहबी मिथकों की बुनियादें कमजोर होती जाएगी और वैज्ञानिक मिथक मजबूत होने लगेंगे।

इन्हीं मिथकों की वजह से दुनिया कई समुदायों, देशों, पंथों व वर्गों में आसानी से अपने-अपने विश्वासों के साथ जी रही है। मिथकों ने दुनिया को सहयोग करने के लिए जोड़ा ; तो विभक्त भी किया । लोक-विश्वासों की विविधता और श्रेष्ठता के बोध ने इतिहासों को महायुद्धों व लम्बी लड़ाइयों से पाट रखा है। ऐसे ही मिथकों के लिए कई शासकों, धर्मप्रचारकों और क्रांतिकारियो ने  शासन और क्रांतियों को जरूरी बताया और जारी रखा।

फिर भी जो अंतिम निष्कर्ष निकला कि हमे इन सब की जरूरत ही क्यों पड़ी ?? और आखिर ऐसे साझा मिथकों से हमारी प्रजाति को अन्य प्रजातियों और क़ुदरत से अलग होने के सिवाय मिला ही क्या है ?? श्रेष्ठता ?? हमारे सिवाय इस बात के गवाह कौन है जो यह कह सके कि मनुष्य अन्य जीवों से श्रेष्ठ है ?? कोई नही। क्योंकि हम अन्य जीवों के लिए श्रेष्ठ होने की बजाय अधिक खतरनाक है । यक़ीनन चिड़िया हमे दूसरे सभी शिकारी जीवों से श्रेष्ठ नही मानती बल्कि अधिक खतरनाक मानती है। और न ही अन्य दूसरे जीव भी हमे महान मानते है।

फिर प्रकृति के फन पर नाच करने वाली हमारी प्रजाति कहि आत्ममुग्धता में तो नही है  कि वो इन सब प्राकृतिक व्यवस्थाओं के केंद्र में है ??

हमने (मनुष्यों ने ) अपनी हर तरह की तरक्की को कुदरती सीमाओं से बाहर जाकर हासिल किया है। फिर चाहे खाद्य श्रृंखला के शीर्ष पर पहुंचने की कामयाबी हो या आग और रफ्तार जैसी कुदरती चीजों को हासिल करने की सफलता। इन सबके लिए कीमत या तो दूसरी प्रजातियों ने चुकाई या स्वयं प्रकृति ने। हमने इसके लिए सिर्फ भोजन- खोजी जीवन की आजादियों को कुर्बान किया और गांवों, नगरों और महानगरों में भरकर अपनी प्रजाति की तेजी से आबादी बढ़ाना तय किया। यह और बात है कि हम विविधताओ को बहुत तेजी से समाप्त या सीमित करने में बहुत हद तक कामयाब हुए लेकिन इन सब का परिणाम पिछली कुछ शताब्दियों से जलवायु परिवर्तन व उससे लगातार आ रही प्राकृतिक आपदाएं और महामारियां है।
जितनी छेड़छाड़ हमने क़ुदरत के साथ कि है उस मुक़ाबले में यह बहुत मामूली कीमत है। असली कीमत चुकानी तो अभी बाकी है जिसकी आशंका हाल की सदी में बन रही है।

मिथकों से हमारे लिए बनाई गई संस्थाए  और वैज्ञानिक क्रांति हमारे लिए घातक सिद्ध होगी या जीवन रक्षक यह तो अभी भविष्य के गर्भ में ही है लेकिन इतना जरूर है अब प्रकृति और मनुष्य आमने सामने होने की स्थिति तक पहुंच चुके है। इस लड़ाई में या तो हम अपने ही मिथकों को अंतिम सत्य मानकर इतिहास बनकर रह जाएंगे या कम से कम आने वाली वैश्विक त्रासदी को जो कि निश्चित है कुछ और सदियों के लिए टालने में कामयाब हो पाएंगे।

प्रकृति में ऐसा कुछ भी नही है जो यह प्रमाणित कर सके कि वह चींटी और अन्य जीवों से अधिक मानव जाति मानव जाति की देखरेख करती है। हम उसी तरह शीघ्रता और सहजता के साथ विलुप्त हो सकते है जैसे कई अन्य प्रजातियां हमारे सामने विलुप्त हो चुकी है। प्रकृति मां के लिये सब बच्चे समान है। जब प्रकृति का संतुलन संकट में होता है तो वह सदैव किसी भी मूल्य पर संतुलन को पुनः बनाये रखने का मार्ग ढूंढ लेती हैं। हमारे द्वारा आघात पहुंचाई प्रकृति एक दिन हम पर ही पलटकर वार करेगी और तब वो छोटी सी मछली  से अधिक  महान बुद्धिमान मनुष्यों के प्रति अनुराग प्रदर्शित नही करेगी। हम एक महान शक्ति से खेल रहे हैं जो स्वयं जीवन हैं और उसके विषय मे हमारी जानकारी शून्य के बराबर भी नही है। हम केवल इतना ही जानती है कि प्रकृति प्रजातियों में किसी भी तरह का भेदभाव नही करती।

---- " रोमन ग्रे "

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