संदेश

रात की गहरी घड़ियां

रात की गहरी घड़ियों में धरती सांस लेती है। किसी ने सुना है उसके सीने से आती सांसों की आवाजों को वो जख्म सीती है अपने रात भर ताकि नई जख्मो के लिए तैयार हो सके नई सुबह

बेवक्त सब जिते है।

वक्त के साथ कोई नही ज़िता, बेवक्त सब जिते है। ख्याल सवा उम्र तक जिते है , रिश्ते पूण तक छलावे जिंदगी भर जी जाते है, और साये रात तक वफ़ादारियाँ कीमतों से ज़िती है और भरोसे धोखे तक मोहब्बत किस्सों में जिवित है और बगावतें इतिहासो में पाप ताउम्र जी जाते है,पुण्य कभी नही जिते आख़िर वक्त के साथ कोई नही जिता, बेवक्त सब जिते है।

सेपियंस

'युवाल नोआ हरारी'  की किताब  "सेपियंस"  में मनुष्य की साझी कल्पना के बारे में बताया गया है की कैसे कुछ मिथकों में साझा विश्वास करने की वजह से लाखों अपरिचित मनुष्य भी एक साथ सहयोग करने के लिए  तैयार हो जाते है। सियासत, मजहब , राष्ट्र और पैसे कुछ और नही हमारी साझी कल्पनाओं के उत्पाद है। सहयोग करने के लिए यह जरूरी है कि हमारे लोक विश्वास साझे हो। और हमने यह किया। सहयोग की प्रबलता इसी बात पर निर्भर करती है कि लोग कितनी शिद्दत से उस मिथक में विश्वास करते है। यही वजह है कि वक्त के साथ कुछ मिथकों की प्रासंगिकता क्षीण होने लगती है और कुछ की अधिक मजबूत। उदाहरण के लिए जैसे-जैसे सभ्यताए और समाज तार्किक होते जाएंगे वैसे-वैसे मजहबी मिथकों की बुनियादें कमजोर होती जाएगी और वैज्ञानिक मिथक मजबूत होने लगेंगे। इन्हीं मिथकों की वजह से दुनिया कई समुदायों, देशों, पंथों व वर्गों में आसानी से अपने-अपने विश्वासों के साथ जी रही है। मिथकों ने दुनिया को सहयोग करने के लिए जोड़ा ; तो विभक्त भी किया । लोक-विश्वासों की विविधता और श्रेष्ठता के बोध ने इतिहासों को महायुद्धों व लम्बी लड़ाइयों से पाट रखा

आरम्भिक मनुष्य

मामूली घास के दानों के मोह में मनुष्य ने अपनी प्राकृतिक आज़ादी से खुशी-खुशी समझौता कर लिया था। पहले मैदानों में खेत बने फिर उनके इर्दगिर्द छोटी मानवीय बस्तियां, फिर सामूहिक सहयोग के लिए गांव जैसी संस्थाए जो निरंतर बढ़ती होई महानगरों में बदल गयी।  सामाजिक झुंडगपशप में इतना प्रमोद मनोरंजन था कि मनुष्य ने अपने जैनेटिक कोड को बदलकर पीढ़ियों को राजनीतिक, मजहबी , राष्ट्रीय झूठ बोलने और मिथक गढ़ने में सक्षम बनाया ।

बारिशें

पेड़ो पर पत्तें आए कई वर्ष बीत गये, अब तो ठूंठ भी सूखकर गिर गए। हरियाली आँखों को सालों से नसीब नहीं हुई। लुप्त हो चुके गिद्धों के झुंड जाने कहाँ से फिर लौट आए। नीयति ने उनके दिनों को पलट जो दिया। ज़मीन दुःखों से फट चुके दिलों की भाँति कठोर हो चुकी थी। यह दसवाँ सावन है जब बारिश न के बराबर हुई। पहले तो आसमान पर काले बादल भी आते थे। गड़गड़ाहट के साथ बिजलियां भी चमकती थी लेकिन बिन बरसे ही लौट जाते, धीरे-धीरे उम्मीदों का इंतजार करती आंखें नमी के अभाव में शुष्क होती गयी और काले मेघों  का आना भी तीन-चार साल से बंद हो गया। मौसम विभागों के अनुमान ठोस झूठ बोल बोलकर थक चुके है, अखबार बताते हैं कि मौसम बदल गए हैं अब बारिश नहीं होगी। बारिश नहीं होगी ! तो क्या होगा जां ?...सजरी का एक पल्लू खींचते हुए उसकी आठ-नौ साल की लड़की बोली ! चिन्ता और गहरी मायूसी से अपनी लड़की के चेहरे की ओर देखते हुए कहा, " कुछ नहीं बस दरियो का पानी और खारा होगा, कंठ सुख जाएगा तो कोयल कुक नही पाएगी, मोर काली मिट्टी जैसा मटमैला होगा उसका रंग जो जाता रहेगा,  नदियाँ जमीन में समा जाएगी, मैदान रेगिस्तान बन जाएंगे और रेगिस्तान सूख

डार्विन का विकासवाद

Sunday, April 27, 2008 "डार्विन के चूल्हे पर जीवन की खिचड़ी" इंटरनेट पर एक निठल्ली सर्फिंग के दौरान आज डार्विन साहब से मुलाकात हो गई. अब ये मत पूछिए कि डार्विन कौन? डार्विन यानि चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन. चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन यानि जैव-विकास के प्रणेता. जीव-विज्ञान के वही आदि-पुरूष, जिन्होंने मनुष्य को बंदरों की संतान कहा था. वे उन्नीसवीं सदी के महान प्रकृतिविज्ञानी थे, जो महज 22 वर्ष की आयु में बीगल नामक लड़ाकू जहाज पर विश्व-भ्रमण के लिए चल पड़े थे. इस दौरान पूरी दुनिया के अनगिनत स्थानों से उन्होंने जीव-जंतु, पेड़-पौधे, पत्थर व चट्टानों के टुकड़े और जीवाश्म इकट्ठे किए. बरसों तक उन पर गहन शोध, निरीक्षण तथा विश्लेषण किया व इन खोजों का परिणाम "प्राकृतिक चयन द्वारा जाति का विकास" (Origin of species by Natural selection) नामक पुस्तक के रूप में सबके सामने आया. उद्विकास के क्षेत्र में यह किताब नींव का पत्थर साबित हुई. डार्विन के बिना जैव-विकास के सिद्धांत अधूरे हैं. खैर....मेरा इरादा यहाँ डार्विन और उनके प्रयोगों के बारे में बात करना नहीं है. मुझे तो यहाँ डार्विन के विचार

सेपियंस 1

" 20 लाख वर्ष पहले पूर्वी अफ्रीका की पदयात्रा करते हुए शायद आप का सामना मानव चरित्रों की चिर-परिचित भूमिकाओं से हो सकता था;- शिशुओं को सीने से लगाए चिंतित माताएं और मिट्टी में खेलते हुए निश्चित बच्चों के समूह,  समाज के आदेशों के खिलाफ लाल-पीले होते तुनकमिजाज नौजवान और थके हुए बुजुर्ग जो सिर्फ इतना चाहते थे कि उन्हें चैन से रहने दिया जाए। स्थानीय सुंदरी को प्रभावित करने की कोशिश करते छाती ठोकते मर्द और सयानी बूढ़ी कुलमाताएं जो यह सब कुछ पहले ही देख चुकी थी। आदिम मनुष्य प्रेम करते थे।, खेलते थे। , करीबी दोस्ती कायम करते थे और हैसियत तथा सत्ता के लिए होड़ करते थे। लेकिन यही सब चिंपांजी, लंगूर और हाथी भी किया करते थे उनमें अलग से कुछ खास नहीं था। किसी को भी स्वंय मनुष्य को भी यह जरा भी आभास नहीं था कि एक दिन उनके वंशज चंद्रमा पर चलेंगे, परमाणु का विखंडन करेंगे , जेनेटिक कोड की थाह लेंगे और इतिहास की पुस्तके लिखेंगे। प्रागैतिहासिक मनुष्यों के बारे में जानने लायक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह मामूली प्राणी थे जिनका अपने पर्यावरण पर गुरिल्लाओं, जुगनुओं और जैली मछली से ज्यादा प्रभाव नह