इंसानी गणित और उसका कर्महीन उत्साह। निष्कर्ष, धारणाएं और थोपी हुई मर्यादा। बाते, खबरें और सूचनाएं सब अधकचरी, और उगली हुई है। सच केवल भोगा और जिया हुआ है। कबीर जिसे आँखन देखी कहते है।
अज्ञेय ठीक ही कहते थे।
" मौन ही अभिव्यंजना है; जीतना तुम्हारा सच है उतना ही कहो "
कहा सागर ने : चुप रहो!
मैं अपनी अबाधता जैसे सहता हूँ, अपनी मर्यादा तुम सहो।
जिसे बाँध तुम नहीं सकते
उस में अखिन्न मन बहो।
मौन भी अभिव्यंजना है : जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो।
कहा नदी ने भी : नहीं, मत बोलो,
तुम्हारी आँखों की ज्योति से अधिक है चौंध जिस रूप की
उस का अवगुंठन मत खोलो
दीठ से टोह कर नहीं, मन के उन्मेष से
उसे जानो : उसे पकड़ो मत, उसी के हो लो।
मैं अपनी अबाधता जैसे सहता हूँ, अपनी मर्यादा तुम सहो।
जिसे बाँध तुम नहीं सकते
उस में अखिन्न मन बहो।
मौन भी अभिव्यंजना है : जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो।
कहा नदी ने भी : नहीं, मत बोलो,
तुम्हारी आँखों की ज्योति से अधिक है चौंध जिस रूप की
उस का अवगुंठन मत खोलो
दीठ से टोह कर नहीं, मन के उन्मेष से
उसे जानो : उसे पकड़ो मत, उसी के हो लो।
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