डार्विन जो मैने पढा

डार्विन की आत्मकथा - वैसे तो चार्ल्स डार्विन की लिखी अपनी एक दर्जन से अधिक किताबे है जिनमे उनके यात्रावृतांत व निजी रोजनामचे भी शामिल  है लेकिन उनकी आत्मकथा जो उन्होंने अपने परिवारजनों ( बेटे व पोते - नातियों ) के लिए लिखी जो बहुत ही निजी प्रसंगों पर आधारित है। जिसे उनके बेटे ने अपने कुछ संस्मरण जोड़कर प्रकाशित करवाया। वो पढ़ने लायक है। इसका शुरुआती लेखन उन्होंने किया जबकि बाकी का उनके बेटे ने ।  

डार्विन एक औसत दर्जे के मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे थे । पिता उनके डॉक्टर थे और ब्रिटेन में वेल्स निवासी थे। उनका परिवार वैसे ही पढ़ा लिखा था जैसे मध्यम वर्ग के परिवार होते है। उनसे बड़े भाई बहन थे जिनका जिक्र वो अपनी आत्मकथा में बहुत कम करते है । लेकिन जितना भी करते है उतने से पता चलता है कि सब उनसे बड़े थे और अक्सर उनके संरक्षक की भूमिका में ही रहे। क्योंकि माँ न दुनिया जल्दी ही छोड़ दी थी। बचपन बहुत सी शरारती घटनाओं से भरा था ऐसे ही जैसे अक्सर खाते - पीते घरों के बच्चों का होता है। आरम्भ में पढ़ाई गाँव के पास वाले स्कूल में ही हुई।  जहां उन्हें पढाई में कमजोर और बात न मानने वाले लड़के के रूप में ही देखा गया। डार्विन ने अपनी आरम्भिक स्कूल की पढ़ाई की मन खोलकर आलोचना की और कहा कि वो पढ़ाई रटन्त के सिवाय कुछ नही थी।

बाद में उनके पिता ने उन्हें एडनबर्ग  में डॉक्टर की पढ़ाई करने भेज दिया जहाँ उनके भाई पहले से ही डॉक्टरी कर रहे थे। डार्विन की अपनी कोई एक रुचि नही थी और न ही उन्होंने कभी यह सोचा कि बड़े होकर उन्हें क्या बनना है। हां प्रकृति विज्ञान में उनकी रुचि बचपन से ही थी जिसकी बनिस्पत वो कई तरह के किट-पतंगों व पौधों के संग्रह में लगे रहते थे तथा कभी-कभी उनसे कुछ निष्कर्ष भी निकाल लेते थे।

  निशानेबाजी से चिड़ियों के शिकार और घुड़सवारी जैसे शौक उन्होंने पाल रखे थे लेकिन यह सब वो छुटियों में किया करते थे। एडनबर्ग में उन्होंने अकादमिक पढाई में अपना दिमाग बिल्कुल भी खर्च नही किया इसकी बजाय वो अन्य दूसरे रुचिकर कार्यो में लगे रहे। वो अपनी आत्मकथा में अपने कई शिक्षकों की बोरिंग कक्षाओं और विषयों के बारे में खुलकर बताते है कि उन्हें कभी उनमें मजा नही आया।

उनके वर्णन से यूरोप के तत्कालीन शैक्षिक समाज के बारे में बहुत कुछ पता चलता है कि कैसे 18 व 19 वी सदी में यूरोप में हर कोई किसी न किसी वैज्ञानिक खोज में लगा हुआ था?? लोग एक दूसरे के विचारों को पढ़ते उन पर अपने तर्क देते और ऐसे नई परिकल्पनाओं को खोजने में लगे रहते थे। प्रोफेसर से लेकर स्टूडेंट तक सब कुछ न कुछ खोज रहे थे। यह दो शताब्दियां जो यूरोप में अविष्कार की सदियां होने जा रही थी उनमें हर रोज कोई नया विचार जन्म ले रहा था तो हर वर्ष कोई नया विषय ही बन जा रहा था।

यह वो दौर था जब यूरोप में छापेखाने के आविष्कार के बाद धड़ल्ले से किताबे छप रही थी। तब हर कोई अलग-अलग तरह का साहित्य और विभिन्न विषयों की किताबें पढ़ता दिख रहा था। विचार तेजी से बदल रहे थे  और मजे की बात यह कि अब यूरोप में इंडिविजुअल के विचारों को महत्व दिया जा रहा था।  ऐसे में डार्विन ने भी भू-विज्ञान, वनस्पतिशास्त्र, प्रकृती विज्ञान व कुछ साहित्यिक किताबें पढ़ना निरन्तर जारी रखा। दरअसल वो शुरु से ही किताबे और लेख पढ़ने के शौकीन रहे बस वही स्कूल और  कॉलेज के विषय ही नही पढ़े जाते थे।

डार्विन के पिता को जब लगा कि डार्विन  एडंबर्ग में रहकर डॉक्टर नही बन सकता तो उन्होंने उसे पादरी बनने के लिए तथा उसकी पढ़ाई के लिए कैम्ब्रिज भेज दिया।  यूरोप में शिक्षण सैद्धांतिक की बजाय  बहुत ज्यादा प्रायोगिक हुआ करता था इसका एक उदाहर यह है कि  अध्यापक और विद्यार्थियों की मंडली भ्रमण अध्यापन और प्रयोगों के लिए दूर दराज के जंगलों और घाटियों में जाया करते थे।  यह कितना रोमांचक शैक्षणिक प्रयोग हुआ करता था कि शिक्षक और उसके छात्र नदियों व एकांत घाटियों में जाते और खोज करते। कैम्ब्रिज में रहते हुए डार्विन ने न केवल बहुत सी नई वैज्ञानिक खोजी किताबो का अध्ययन किया बल्कि कुछ-एज लेख भी प्रस्तुत किये जो छोटी मोटी खोजो और अपने संग्रह पर होते थे।

कैम्ब्रिज से पास होने के दौरान ही उन्हें  सन 1831ई में बीगल नामक एक जहाज पर कैप्टन फिट्ज राय के साथ अटलांटिक में एक प्राकृतिज्ञय के तौर पे यात्रा करने का मौका मिला। उसके बाद वो अन्य कई समुद्री यात्राओं पर गए । यात्रा के दौरान देखी गयी वानस्पतिक , जैविक और भौगोलिक विविधताओं के बारे में लिखे गए उनके  यात्रावृत्तांत और जुटाए गए साक्ष्यों ने ही अंत मे जाकर उनकी किताब "ओरिजन ऑफ स्पीशीज" (सन 1859 ई) की शक्ल ली। हालांकि उससे पहले ही वो अपने वैज्ञानिक लेखन की वजह से यूरोप के वैज्ञानिक जगत में अपना स्थान बना चुके थे लेकिन "ओरिजन ऑफ स्पीशीज" में दिए गए उद्विकास व प्राकृतिक चयन के सिद्धांत ने उन्हें न केवल दुनिया का महानतम वैज्ञानिक बनाया बल्कि इतिहास के चुनिंदा  उन लोगों में भी शामिल कर दिया जिन्होंने  अपने काम से मानव सभ्यता के विचारों को ही नही दिशा प्रदान की।

  डार्विन ने अपना निजी जीवन बहुत ही साधारण और सरल तरीके से गुजारा। उन्होंने अपनी आत्मकथा में पूरी साफ़गोई से यह लिखा कि वो खुद को कभी इतना महान मानने के लिए तैयार ही नही कर पाए जितना कि वो थे। उनके ढेरो दोस्त , शिक्षक और साथी रहे। उन सबको उन्होनें अपनी जीवनी में जगह दी और किससे क्या सीखा ??  उसका बेखूबी विनम्रता से वर्णन कर अपनी कृतज्ञता प्रकट की।  जिनकी बातों से वो असहमत थे या जो उनको लगता था की गलत है  उन सबको उन्होंने लिखा और जाहिर किया। डार्विनवाद की प्रसिद्धि के बाद भी वो अपना जीवन वैसे ही बिताते रहे   जैसे जवानी में सीपियाँ बटोरते और कीड़े इकट्ठे करते बिताया। पढ़ना और लिखना उन्होंने कभी बन्द नही किया। निजी जिंदगी में वो बहुत अच्छे इंसान थे ( जैसा उनके पुत्र ने लिखा और मैने पढ़ते हुए महसूस किया )

इस किताब को पढ़ते समय मुझे एक ऐसे व्यक्ति की जीवन यात्रा दिखी जिसने अपने जीवन को भरपूर जिया। जिसने दुनिया को कुछ नया दिया?? कुछ बेहतर किया?? हालाँकि उनके शिकार व निशानेबाजी के किस्सों ने मन दुखाया लेकिन उन्होंने उनके बारे में भी ईमानदारी से लिखा कि वो 24 चिड़ियाओं का शिकार एक दिन में कर चुके थे। यह किताब एक महान वैज्ञानिक के साधारण से जीवन की कहानी है। जिसमे उनकी हरएक आदत पर बात की गई है। कैसे वो  मोटी किताबो के दो फाडे करके उन्हें पढ़ते थे?? और कैसे वैज्ञानिक एक दूसरे से ईर्ष्या कर सकते थे ?  वो सब कुछ लिखा जो जिया गया।

- ईश्वर गुर्जर

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मैं तुमको विश्वास दु।

यादें

interview transcription।